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________________ द्वितीय खंड। . . [१२६ फिर जैसाका तैसा समझदार होकर अपना काम करने लगता है। वैसेही अनादिकालसे मोहके नशेमें चूर यह आत्मा अपने विभावमें वर्तन कर रहा है, मोहका नशा उतरते ही अपने स्वभावको प्राप्त कर लेता है। वृत्तिकारने दो दृष्टान्त दिये हैं एक तो माणिकरत्नकायह रत्न किसी अंगूठीमें जडा हुआ अपने कुछ भागको मात्र छिपा देता है । जब उसको अंगूठीसे अलग करो तब फिर वह सर्वाग स्वभावमें झलकता है, इसी तरह कर्म बन्धनमे पडा हुआ यह आत्मा अपने स्वभावको छिपाए रहता है। बन्धके हटते ही स्वभाव जैसेका तैसा प्रगट होनाता है। दूसरा पानीका, कि पानी स्वभावसे शीतल मीठा व निर्मल होता है परन्तु नीममें जाकर अपने स्वभावको छिपाकर कडुवा, नीबूमे जाकर खट्टा, आवलेमे जाकर कषायला, ईपमे जाकर बहुत मीठा इत्यादि रूप हो जाता है। कोई प्रयोग करे तो वही पानी फिर अपने स्वभावमें आसक्ता है। इसी तरह यह ससारी जीव जो स्वभावसे सिद्ध भगवानके समान है कर्मोके मध्यमें पड़ा हुआ अज्ञानी व रागी देषी हो रहा है। कर्मोके संयोगके दूर होते ही फिर स्वभावमें शुद्ध होजाता है । इससे यही सिद्ध किया गया कि कर्म हमारे स्वभावको तिरस्कार कर देते हैं परन्तु अभाव नहीं कर सक्ते हैं। श्री गुणभदाचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैं कि यह प्राणी अपनी मूलसे ही संसारमे भ्रमण कर रहा है। मामन्यमय मा मत्त्वा भ्रान्तो भ्रान्तौ भवार्णवे । नान्योऽइमहमेवाइमन्योऽन्योऽ योऽहमस्तिः न ॥ २४३ ॥ तप्तोऽइ देहसयोगाजलं वानलसंगमात् । इह देहं परित्यज्य शीतीभूताः शिवैषिणाः ॥ २५४ । ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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