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________________ श्रीप्रवचनसारटीका । अनादिचयसंवद्धो महामोहो हृदि स्थितः । सम्यग् योगेन यैर्वान्तस्तेषामू विशुद्धयति ॥ २५५ ॥ भावार्थ-यह भ्रममें पड़ा हुआ प्राणी अपनेको दूसरा- दूसरेको अपना मानकर संसारसमुद्रमें गोते खा रहा है। मैं वास्तवमें अन्य नहीं हूं, मैं मैं ही हूं, अन्य अन्य ही है, अन्य मेरे रूप नहीं है यही बुद्धि अपना उद्धार करनेवाली है। मैं इस शरीर के संयोग से उसी तरह संतापित रहा हूं जिस तरह अग्निके संयोगसे जल तप्त होजाता है। मोक्षके इच्छुकोंने इस देहके ममत्वको त्यागा है तब वे शांत हुए है । हृदयमें अनादिकालका संबद्ध किये हुए महामोहरूपी पिशाच चला आया है । जिन्होंने सम्यक् प्रकार ध्यानके बलसे उसे अन्त कर दिया है उनको पूर्ण शुद्धता प्राप्त हो जाती है । १२४ ] खामी समतभद्र खयंभूस्तोत्रमें श्री अनंतनाथकी स्तुति करते हुए कहते है अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिर हृदि । यतो जितस्तत्त्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोर्भूभगवाननन्तजित् ॥६६॥ भावार्थ - अनादिकालसे अनंत दोषोंके स्थान रूप शरीरको - रखनेवाला जो मोह रूपी पिशाच हृदयमें वास कररहा था उसीको आपने तत्वकी रुचिमें प्रसन्नता लाभ करके जीत लिया इसीलिये हे भगवान ! आप अनंतजित हैं । तात्पर्य यह है कि कर्मोंसे हमारा स्वभाव ढक रहा है उसीकी प्रगटता मोहके त्यागसे होने लगती है जिसका उपाय हमको करना चाहिये ॥ २७ ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि द्रव्यकी अपेक्षा जीव नित्य है तथापि पर्यायकी अपेक्षा विनाशीक या अनित्य है—
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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