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________________ waman . द्वितीय खंड । [१२५ जायदि णेव ण णस्सदि, खणभंगसमुन्भवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ, संभवविलयत्ति ते णाणा ॥२८॥ जायते नैव न नश्यति खणभगसमुद्भवे जने कश्चित् । यो हि भवः सो विलयः समवविलयाविति तो नाना ॥२८॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(खणभगसमुन्भवे जणे ) क्षण क्षणमें नाश होनेवाले लोकमे (कोई णेव जायदि ण णस्सदि) कोई जीव न तो उत्पन्न होता है और न नाश होता है । कारण (जो हि मवो सो विलओ) जो निश्चयसे उत्पत्ति रूप है वही नाश रूप है। (ते संभव विलयत्ति णाणा ) वे उत्पाद और नाश अवश्य भिन्न २ हैं। विशेपार्थ-क्षण क्षणमें जहां पर्यायार्थिक नयसे अवस्थाका नाश होता है ऐसे इस लोकमें कोई भी जीव द्रव्यार्थिक नयसे न नया पैदा होता है न पुराना नाश होता है। इसका कारण यह है कि द्रव्यकी अपेक्षा जो निश्चयसे उपजा है वही नाश हुआ है। जैसे मुक्त आत्माओंका जो ही सर्व प्रकार निर्मल केवल ज्ञानादिरूप मोक्षकी अवस्थासे उत्पन्न होना है सो ही निश्चय रत्नत्रयमई निश्चय मोक्ष मार्गकी पर्यायकी अपेक्षा विनाश होना है। वे मोक्ष पर्याय और मोक्ष मार्ग पर्याय यद्यपि कार्य और कारण रूपसे परस्पर भिन्न २ हैं तथापि इन पर्यायोंका आधार रूप जो परमात्मा द्रव्य है सो वही है अन्य नहीं है। अथवा जैसे मिट्टीके पिडके नाश होते हुए और घटके बनते हुए इन दोनोंकी आधारभूत मिट्टी वही है। अथवा मनुष्य पर्यायको नष्ट होकर देव पर्यायको पाते हुए इन दोनोका अाधार रूप संसारी जीव द्रव्य वही है।।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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