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१२० ] . श्रीप्रवचनसारटीका।
श्री समन्तभद्राचार्यजीने खयंमूस्तोत्रमें भी कहा है--- अलभ्य शक्तिर्भवितव्यतेय हेतुर्दयाविष्कृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो नंतरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥३३॥
भावार्थ-कर्मके उदयकी शक्तिको लांघना बहुत कठिन है। नितने कार्य हैं वे बाह्य और अंतरंग निमित्तोके होनेपर होते हैं। एक अहंकारी पुरुष जिसको कर्मके उदयकी अपेक्षा नहीं है केवल अपने पुरुषार्थके अहंकारसे पीडित है, सुख आदिके लिये कार्योको करनेमें सहकारी कारणोको मिलाकर भी कार्यमे असफल होकर लाचार हो जाता है। श्री सुपार्श्वनाथ आपने ऐसा यथार्थ उपदेश दिया है। प्रयोजन यह है कि संसारी जीव अपने ही भावोंसे बांधे हुए कौके कारण ही चारो गतिमें भ्रमण करते हैं इस लिये संसारके भ्रमणसे बचनेके लिये कर्मबंधके कारण राग, द्वेष, मोहादि भावोंको दूर करना चाहिये ॥ २६ ॥
उत्थानिका-आगे शिष्यने प्रश्न किया कि नरनारकादि पर्यायोंमें किस तरह जीवके स्वभावका तिरस्कार हुआ है । क्या' जीवका अभाव होगया है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं- .
णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णाम कम्मणिवत्ता। ' ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥ २७॥ । नरनारकतिर्यक्सुरा जीवः खलु नामकर्मनिर्दृत्ताः । न हि ते लब्धस्वभावाः परिणममानाः स्वकर्माणि ॥ २७ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, । नारकी, तियच और देव पर्यायमें तिष्ठनेवाले (जीवा) जीव (खलु)
प्रगटपने ( णाम कम्मणिव्वत्ता ) नाम कर्म द्वारा उन गतियोंमें रचे