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________________ द्वितीय खंड। [११९ पर्यायरूप प्रगट होता रहता है। यदि अग्निका सम्बन्ध न हो तो तेल अपने द्रवण व सचिक्कण स्वभावको बिगाड़कर कभी दीपशिखामे परिणमन न करे ऐसे ही जो कर्माका बन्ध न हो तो कभी आत्मा मनुष्यादि गतियोंको धारण न करे । वास्तवमे पुद्गल कर्म ही भवभवमें जीवको फिरानेवाले हैं श्री समयसारफलशमे श्री अमृतचंद्रनी कहते हैंअस्मिन्ननादिनि महत्त्वविवेकनाट्ये । वर्णादिमानटात पुद्गल एव नान्यः ॥ गगादिपुद्गल वकारविरुद्धशुद्ध चतन्यघावमयमूर्तिस्य च जीवः ॥ १२॥ भावाय-इस अनादिकालके महान अज्ञानके नाट्यरूप ससारमे वर्णादिरूप पुद्गल ही नृत्य कररहा है दूसरा कोई नहीं । अर्थात् पुद्गलके निमित्तसे ही जीव ससारचक्रमें घूम रहा है। यदि जीवके यथार्थ स्वभावका विचार करें तो यह जीव रागद्वेषादि पुद्गलके विकारोसे विरुद्ध शुद्ध चैतन्य धातुकी एक अपूर्व मूर्ति है। श्री अमितगति आचार्य सुभाषितरत्नसदोहमें कर्मोदयकी महिमा बताते है देवायत्त सर्व जीवस्य सुखासुख त्रिलोकेऽपि । बुवेति शुधिषणाः कुर्वन्ति मनः क्षति नात्र ॥३६॥ भावार्थ-तीन लोकमें सर्व ही जीवोके जो कुछ सुख या दुःखकी अवस्था होती है सो सर्व कर्मोके उदयसे होती है, ऐसा जानकर निर्मल बुद्धिवाले कभी मनमें खेद नही करते हैं-वस्तुका खरूप विचारकर समताभाव रखते हैं।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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