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११८ ] श्रीप्रवचनसारटीका । नरकगति-मनुष्यादि आयु तथा गति जाति शरीर अंगोपांग स्पर्श आदि नाम कर्मकी प्रकृतियोके उदयसे होती है। यदि नाम कर्मका उदय न हो तो आत्माके प्रदेशोमे कोई भी सकम्पपना या हलनचलन न हो। आकारके पलटनेरूप व्यजन पर्याय जिसमे आत्माक प्रदेश सकोच विस्ताररूप होजाते हैं, नामकर्मके त्यसे ही होती है। यह नाम कर्म अघातिया है-आत्माके ज्ञानादि गुणोका घातक नहीं है परन्तु नाम कर्मके साथमे जो मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म हैं उनका जितना उदय है उसके कारण आत्माके शुद्ध गुण ढकरहे है या क्लुपित होरहे है। इसलिये यह जीव नाम, गोत्र, वेदनी, आयु इन अघातिया कोके उदयसे जब मनुष्य आदि शरीरको व उसमें अच्छे या बुरे सम्बन्धोंको प्राप्त करता है तब वहां घातिया कीका उदय होनेसे आत्माकी शक्ति बहुभाग या अल्पभाग ढकी रहती है । इन घातिया कोमे मुख्य प्रवल मोह कर्म है। इस मोहके आधीन हो यह अज्ञानी आत्मा रागद्वेष, मोह भावोको कर लेता है। इन रागादि अशुद्ध भावोके कारण फिर भी कभी आठ कमी सात प्रकार कर्मोको वाध लेता है और उन कर्मकि उदयसे फिर नर, नारकादि गतियोमे जाता है। वहां फिर अच्छे बुरे संयोग पाकर राग द्वेष मोह करलेता है । इस तरह इस संसारमें अनादिकालसे प्रवाहरूप यह आत्मा कोको आप ही बाधकर आप ही उसके फलसे चार गतियोंमे दुःख उठाता है। जैसे तेल अग्निके सम्बन्धसे बत्तीके द्वारा दीपकी शिखारूप हो जाता है ऐसे यह ससारी आत्मा कीके उदयरूप अग्निके संबन्धंसे शरीर द्वारा मनुष्यादि