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द्वितीय खंड ।
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कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावेण । अभिभूय परं तिरियं परस्य वा सुरं कुणदि ॥ २६ ॥ कर्म नामसमाख्यं स्वभावमथात्मनः स्वभावेन । अभिभूय नर तिर्यच नैरयिकं वा तुर करोति ॥ २६ ॥
अन्य सहित सामान्यार्थ - ( अघ) तथा (णामसमखं कम्म ) " नाम नामका कर्म (सहावेण ) अपने कर्म स्वभावसे (अप्पणी सभाव ) आत्माके स्वभावको (अभिभूय) ढककर ( णरं तिरिय णेरइय वा सुरं कुणदि) उसे मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी या देवरूप कर देता है ।
विशेषार्थ - कर्मोंसे रहित परमात्मासे विलक्षण ऐसा जो नाम नामका कर्म जो नामरहित गोत्ररहित परमात्मासे विपरीत है अपने ही सहभावी ज्ञानावरणादि कर्मों के स्वभावसे शुडबुद्ध एक परमा
स्वभावको आच्छादन कर उसे नर, नारक, तिर्यञ्च या देवरूप में कर देता है। यहां यह अर्थ है - जैसे अग्नि कर्ता होकर तेलके स्वभावको तिरस्कार करके वत्तीके आधारसे उस तेलको दीपककी शिखारूप में परिणमन कर देती है तैसे कर्मरूपी अग्नि कर्ता होकर तेलके स्थान में शुद्ध आत्माके स्वभावको तिरस्कार करके बत्तीके समान शरीरके आधारसे उसे दीपककी शिखाके समान नर, नारकाढि पर्यायों के रूपसे परिणमन कर देती है। इससे जाना जाता है कि मनुष्य आदि पर्यायें कर्मो के द्वारा उत्पन्न हैं ।
भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने इस बातको और भी स्पष्ट कर दिया है कि सिद्ध अवस्थाके सिवाय और सर्व ससारीक पर्यायें - इस जीवके कर्मोंके उदयसे होती हैं । सिद्धगतिरूप पर्याय जब कर्मोके क्षयसे होती है तब मनुष्यगति, देवगति, पशुगति, तथा