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श्रीप्रवचनसारटोको।
अहमहमिह भावाद् भावना यावदन्तर्भवति भवति बंघस्तावदेषोऽपि नित्यः ।। क्षणिकमिदमशेषं विश्वमालोक्य तस्माद्वज शरणमवन्धः शान्तये त्वं समाधे:६८ . भावार्थः यह बहुत रमणीक है, यह बहुत सुन्दर है तथा यह अशोभनीक है, यह कुत्सित है इत्यादि भेदोके कारण तेरेमे ये रागद्वेषादि अपना पैर रखते हैं इससे आत्मकार्य सिद्ध न होगा। इसलिये तू रागादि क्रियाओंको छोडकर निष्क्रिय होता हुआ. सर्व शरीरादि पर पुद्गलसे रहित निर्मल एक आत्माको भन । इसी 'उपायसे तू समाधि भावका अविनाशी और सच्चा फल प्राप्त करेगा। जबतक तेरेमें द्वैतभाव हो रहा है अर्थात् तू रागद्वेपमें वर्त रहा है तबतक क्रियाएं हो रही हैं । जब तुझे अद्वेतरूप एक कर्मबन्धादि रहित शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो जावेगी तब तू निष्क्रिय हो जायगा
और फिर कहां तेरेमें क्रिया मिल सक्ती है ? इस जगतमे मै ऐसा हूं, मैं ऐसा हूं इस भावसे जबतक अंतरगमें भावना रहती है तबतक यह बंध बराबर होता रहता है इसलिये तू इस सर्व लोकको क्षणभंगुर देखकर तथा निश्चल एकाग्र होकर अर्थात् पूना बन्दनाका भाव भी छोड़कर तू शांतिकी प्राप्तिके लिये समाधिकी शरणमें जा ॥२५॥
इस गाथामें यह बता दिया है कि नर नारकादि पर्यायें व उनके कारण रागादि भाव इस आत्माका निन स्वभाव नही है, शुद्ध निश्चय नयसे आत्मा इन सर्व अशुद्ध कारण तथा कार्योंसे भिन्न है।
ऐसे प्रथम स्थलमें सूत्ररूप गाथा वर्णन की।
उत्थानिका-आगे इसी सूत्रका विशेष कहते हुए बताते हैं कि ये मनुष्य आदि पर्यायें कर्मोके द्वारा पैदा होती हैं- '