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द्वितीय खंड ।
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होता है अर्थात कर्म बाधता है यह बात सिद्ध है । 'कर्मके' फलसे मनुष्यादि गति पाकर सांसारिक दुःखसुखको भोगता है । जैसा कर्मका उदय क्षणिक है वैसे ये नरनारकादि पर्यायें भी क्षणिक हैं।
तात्पर्य यह है कि संसारका भ्रमण अपने ही मिथ्यात्व व रागादि भावोकी क्रियाका फल है तथा संसारका नाश होकर पर - मात्मपदका लाभ वीतरागरूप परमधर्मसे होता है ऐसा जानकर ससारके नाशके लिये वीतराग धर्ममे वर्तन करना योग्य है ।
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इस कथनसे यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि यह संसारी जीव अनादिकालसे रागादिरूप परिणमन कर रहा है इसीसे नाना प्रकार कर्मांध देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नरक गतिमें वारवार चक्कर लगाया करता है । जब अपने आत्माके श्रद्धान ज्ञान चरित्रमें तन्मई होगा तब आप ही अपने शुद्ध भावोसे कर्मबध काटकर मुक्त हो जायगा । यदि यह विभाव और स्वभावरूप परिणमन करनेकी शक्ति न रखता तौ न कभी संसारी रहता और न कभी संसारीसे सिद्ध होता । यह भी झलका दिया है कि वीतरागरूप धर्म में क्रिया करना संसाररूपी कार्य पैदा करनेके लिये निष्फल है। श्री योगेन्द्रदेवने अमृताशीतिमे बंध मोक्षके सम्बन्धमे अच्छा वर्णन किया है
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इदमिदमतिरम्यं नेदमित्यादिभेदा - द्विदधति पदमेते रामरोपादयस्ते । तदल मलमेक निष्फलं निष्क्रियस्सन् भज भजसि समाधे: 'सत्फळ येन नित्यम् ॥ ६६ ॥
तावत्क्रियाः प्रवर्तन्ते यावद् द्वैतस्य गोचर । अद्वपे निष्फले जाने निष्क्रियस्य कुतः क्रिया ॥ ६७ ॥
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