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________________ १११४ ] श्रीप्रवचनसारटीका। कार्य समयसारको उत्पन्न करनेके कारण फल सहित है तथापि नर नारक आदि पर्यायोंके कारणरूप ज्ञानावरणादि कर्मबंधको नहीं पैदा करती है इसलिये निष्फल है। इससे यह ज्ञात होता है कि नरनारक आदि सांसारिक कार्य मिथ्यात्व रागादि क्रियाके फल हैं। अथवा इस सूत्रका दूसरा व्याख्यान ऐसा भी किया जासका है कि जैसे शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव रागादि विभाव भावोंसे नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नयसे भी नहीं परिणमन करता है ऐसा जो सांख्यमत कहता है उसका निषेध है, क्योंकि जो जीव मिथ्यात्व व रागादि विभावोंमें परिणमन करते हैं उन्हींको नर नारक आदि पर्यायोकी प्राप्ति है ऐसा देखा जाता है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य इस बातको स्पष्ट करते हैं कि यह संसारी जीव अपने मिथ्यादर्शन व रागद्वेषादि भावोके फलसे ही मनुष्यादि पर्यायोंके फलको पाता है। जबतक जिस आयुका उदय रहता है तबतक ही यह जीव किसी मनुष्य या देव आदि पर्यायमें रहता है। ये नरनारकादि पर्याय नित्य नहीं हैं। इस संसारकी नर नारक देव मनुष्य चारों ही गतिरूप पर्यायें जीवके रागादिभावोंसे बांधे हुए कर्मों के आधीन है। इन रागादि भावोंका कर्ता यह संसारी जीव है। सांख्यमत जैसे इस जीवको सर्वथा रागादिका अकर्ता कहता है सो बात नहीं है । यह जीव परिणमनशील है । जब यह अपने वीतराग परम धर्ममें परिणमन करता है तब यह मनुष्यादि पर्यायोंमै जानेवाले कर्मोको नहीं बांधता है किन्तु अपने इस परम धर्ममई वीतराग भावसे अरहंत या सिद्ध परमात्मा होजाता है। जब वीतराग भावसे शुद्ध होता है तब रागादिभावोंसे अशुद्ध
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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