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द्वितीय खंड।
[११३ (किरिया हि अफला णस्थि ) यह रागादि रूप क्रिया निश्चयसे विना फलके नहीं होती है. अर्थात् मनुप्यादि पर्यायरूर फलको देती है (नदि परमो धम्मो णिप्फलो ) यदि उल्लष्ट वीतराग धर्म मनुप्यादि पर्यायरूप फल देनेसे रहित है।
विशेषाय-जैसे टकोत्कीर्ण (टाकीसे उकेरेके समान अमिट ) ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप परमात्मा द्रव्य नित्त्य है वैसे इस संसारमें मनुष्य मादि पर्यायोमेंसे कोई भी पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो । तत्र च्या मनुष्यादि पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली संसारफी क्रिया भी नहीं है ! इसके उत्तरमें कहते है कि मिथ्यादर्शन व रागहेयादिकी परिणति रूप सासारिक क्रिया नहीं है ऐसा नहीं है। इन मनुप्यादि चारों गतियोंको उत्पन्न करनेवाली रागादि क्रिया अवश्य है । यह क्रिया शुद्धात्माके स्वभावसे विपरीत होनेपर भी नर नारकादि विभाव पर्यायके स्वभावमे उत्पन्न हुई है। तब क्या यह रागादि क्रिया निष्फल रहेगी ?-इसके उत्तरमें कहते हैं कि वह मिथ्यात्व रागादिमें परिणतिरूप वभाविक क्रिया यद्यपि अनन्त सुखादि गुणमई मोक्षके कार्यको पैदा करनेके लिये निष्फल है तथापि नाना प्रकारके दुखोको देनेवाली अपनी अपनी क्रियासे होनेवाली कार्यरूप मनुप्यादि पर्यायको पैदा करनेके कारण फल सहित है, निष्फल नहीं है-इस रागादि क्रियाका फल मनुष्यादि पर्यायको उत्पन्न करना है। यह बात कैसे मालम होती है ? इसके उत्तरमें कहते है कि यदि वीतराग परमात्माकी प्राप्तिमे परिणमन करनेवाली क्रिया निमको आगमकी भाषामें परम यथाख्यात चारित्र रूप परमधर्म कहते है, फेवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टयकी प्रगटता रूप