SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२] श्रीप्रवचनसारटीकी । करते हैं । इसमे कमसे पांच स्थान हैं। पहले वार्तिकके व्याख्यानके अभिप्राय से सांख्यके एकांतका खंडन है । अथवा शुद्ध निश्श्रयनय से फल कर्म रूप है शुद्धात्माकी स्वरूप नहीं है ऐसी गाथा एक है। फिर इसी अधिकार सूत्रके वर्णन के लिये “ कम्मं णाम समक्खं " इत्यादि पाठ क्रमसे चार गाथाएं हैं। इसके आगे रागादि परिणाम ही द्रव्य कर्मोंके कारण हैं इसलिये भाव कर्म कहे जाते है इसतरह परिणामकी मुख्यतासे "आदा कम्म मलिमसो" इत्यादि सूत्र दो है । फिर कर्मफल चेतना, कर्म चेतना, ज्ञान चेतना इसतरह तीन प्रकार चेतनाको कहते हुए " परिणमदि चदेणाए ” इत्यादि तीन सूत्र हैं । फिर शुद्धात्माकी भेद भावनाका फल कहते हुए "कत्ताकरणं" इत्यादि एक सूत्रमें उपसंहार है या संकोच है - इसतरह भेद भाव - नाके अधिकारमे पांच स्थलसे समुदाय पातनिका है ॥ २४ ॥ . उत्थानिका- आगे कहते हैं कि नारक आदि पर्याय कर्मके' आधीन हैं इससे नाशवंत हैं। इस कारण शुद्ध निश्श्रयनयसे ये नारकादि पर्यायें जीवका स्वरूप नही है ऐसी भेद भावनाको कहते हैं: . यसोत्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिष्फलो परमो ॥२५॥३ एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिर्वृत्ता । क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निःफलः परमः ॥ २५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( एसोत्ति णत्थि कोई ) कोई भी मनुष्यादि पर्याय ऐसी नहीं है जो नित्य हो ( ण सहावणिव्वत्ता किरिया णत्थि ) और रागादि विभाव स्वभावसे होनेवाली क्रिया नहीं है ऐसा नहीं है अर्थात् रागादि रूप क्रिया भी अवश्य है ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy