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द्वितीय खंड ।। [१८३ सर्व जीयोमें सागरण ऐसा सर्व तरह निर्मल ऐसा केवलजान
और पेयलदर्शन जीव द्रव्यका विशेष गुण है क्योकि अन्य पांच अचेतन द्रव्योंमें यह असम्भव है, इसी विशेष उपयोग गुणसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्म द्वन्यका निश्चय होता है। यहां यह प्रयोजन है कि यद्यपि पाच द्रव्य जीवका उपकार करते है तो भी इनको दुखका कारण जान करके नो अक्षेय और अनन्त सुन्व आदिका कारण विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावरूप परमान्म द्रव्य है उसीको ही मनसे ध्याना चाहिये वचनमे उमका ही वर्णन करना चाहिये तथा शरीरसे उसीका ही साधक नो अनुष्ठान या किया कर्म है उसो करना चाहिये।
भावाय-इस गाथामें आचार्यने अमूर्तीक पाच द्रव्योके विशेष गुण बताये है । एक समयमे सर्व द्रव्योको साधारण अवकाग देनेवाला कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिये यह गुण सिवाय आकाशके
और किमी द्रव्यम नहीं हो सक्ता क्योकि आकाश अनन्त है, उसीके मध्यम अन्य पाच द्रव्य अवगाह पारहे है तथा लोकाकागमें नहा कही कोई जीव या पुद्गल जगहकी जरूरत रखते हैं उनको अवकाग देनेदाला उदासीन कारणरूप आकागका ही अवगाह गुण है। हरएक कार्यके लिये उपादान और निमित्त कारणकी जरूरत पड़ती है | धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और कालके असंख्यात कालाणु तो क्रिया अर्थात् हलन चलनरहित है, अनादिकालसे लोकाकाश व्यापी है। जीव पुद्गल ही क्रियावान तथा हलन चलन करते है। ये दोनों द्रव्य अपनी ही उपादान शक्तिसे जगह लेते, चलते तथा ठहरते है। इनके इन तीन कार्योंके लिये सर्व जीव पुद्गलों के