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द्वितीय खंड।
, १५३. मसे. ज्ञान दर्शन, व अंतरायके क्षयोपशमसे आत्मवीर्य, व मोहके उपशमसे वीतरागताके अंश प्रगट हैं, इस हीको पुरुषार्थ कहते हैं । इस पुरुषार्थके बलसे हमको मोहके उदयके चलको घटाना चाहिये । हमारा यह अभ्यास कुछ कालमें हमारे आत्माके परिणमनको वैभाविकसे हटाकर खभावमें परिणमन करने देगा। इसलिये हमें कर्मोके प्रबल निर्बलके विकल्पमे न पड़ अपना पुरुषार्थ खाभाविक भावोमें होनेके लिये करना चाहिये । पुरुषार्थके विना कार्यकी सिद्धिं नहीं हो सकी है। श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
भवमोगशरीरेषु भावनीयः सदा बुधः । निर्वेदः परया बुद्धथा माराति जिगक्षुभिः ॥ १२७॥ यावन्न मृत्युवज्रेण देहौलो निगत्यते । नियुज्यता मनस्तावत् कर्मागतिपरिक्षये ॥ १२८ ॥
भावाथ-उन बुद्धिमानोको, जो कर्म शत्रुओंका नाश करना चाहते हैं उत्कृष्ट बुद्धिसे ससार शरीर भोगोमें सदा वैराग्यभावना भानी चाहिये । जबतक मरणरूपी वजसे शरीररूपी पहाड न गिरे तवतक अपने मनको कर्मशत्रुओके नाशमें लगाए रहो ॥३४॥
इस तरह तीन प्रकार चेतनाके कथनकी मुख्यतासे चौथा स्थल पूर्ण हुआ।
उत्थानिका-आगे सामान्य ज्ञेय अधिकारकी समाप्ति करते हुए पहले कही हुई भेदज्ञानकी भावनाका फल शुद्धात्माकी प्राप्ति है. ऐसा दिखाते हैं: