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________________ १५४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । कत्ता करणं कम्म फलं च अप्पत्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥३५॥ कर्ता करण कर्मफलं चात्मेति निश्चित: श्रमणः । परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मान लभते शुद्ध ॥ ३५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ -(कत्ता, करणं, कम्मफलं च अप्पत्ति ) कर्ता, करण, कर्म तथा फल आत्मा ही है ऐसा (णिच्छिदो ) निश्चय करनेवाला (समणो) श्रमण या मुनि (जदि) यदि (अण्णं) अन्य रूप (णेव परिणमदि ) नहीं परिणमन करता है तो (सुद्धं अप्पाणं लहदि) शुद्ध आत्मीक खरूपको पाता है। विशेषार्थ-मै एक आत्मा ही खाधीन होकर अपनी निर्मल आत्मानुभूतिका अपने विकार रहित परम चैतन्यके परिणामसे परिणमन करता हुआ साधन करनेवाला हूं इससे मै ही कर्ता हू।तथा मैं ही रागादि विकल्पोसे रहित अपनी खसंवेदन ज्ञानकी परिणतिके वलसे सहन शुद्ध परमात्माकी अनुभूतिका साधकतम हूं, अर्थात् अवश्य साधनेवाला हूं इसलिये मै ही करण स्वरूप हूं और मैं ही शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप परमात्माके खरूपसे प्राप्ति योग्य हूं इसलिये मैं ही कर्म हूं। तथा मै ही शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप परमात्मासे साधने योग्य अपने ही शुद्धात्माकी रुचि, व उसीका ज्ञान व उसीमे निश्चल अनुभूतिरूप अभेद रत्नत्रयमई परम समाधिसे पैदा होनेवाले सुखामृतरसके आस्वादमे परिणमनरूप हू इससे मै ही फलरूप हू । इस तरह निश्चयनयसे बुद्धिको रखनेवाला परम मुनि जो सुखदुःख, जन्ममरण, शत्रु मित्र आदिमे समताकी भावनासे परिणमन कररहा है 1. यदि अपनेसे अन्य रागादि परिणामोमें नहीं परिणमन करता है तो
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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