________________
द्वितीय पंड।
[१५५
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे रहित शुद्धबुद्ध एक खभावरूप आत्माको प्राप्त करता है। ऐसा अभिप्राय भगवान श्री कुदकुदाचार्य देवका है।
भागार्थ हम गाथामें आचार्यने यह बात दिखलाई है कि हरएक कार्यमें कर्ता, करण, कर्म और फल ये चार बातें होती है। इन्हीं चार वातोफा भेटकी अपेक्षा विचार करें तो यह टप्टात होगा कि देवदत्तने अपने मुंहसे आम खाया जिससे वह बड़ा सतोपी हुआ। यहांपर कर्ता देवदत्त, मुह करण, आम साना कर्म तथा संतोप पाना फल है । इमी दृष्टातको यदि अमेदमें घटाए तो इस तरह कह सक्ने है कि देवदत्तने अपने ही शरीरके अग मुंहसे अपने ही मुखके व्यापाररूप कर्मको किया और आप ही सनोपी होगयाइसतरह निश्चयो देवदत्तही कर्ता, करण, कर्म और फरूप हुआ।
इमी तरह जब भेद करके कहें तो इसतरह कह सक्ते है कि आत्माने अपने अशुद्ध परिणामोसे कर्म बाधकर दुःख उठाया । यहा आत्मा कर्ता, अशुद्ध परिणाम करण, कर्मवचन कर्म व दुख पाना फल है । इसी वातको अभेदसे विचार करें तो आत्माने अपने ही आत्माके अशुद्ध परिणामोंसे परिणमन करके रागादि भाव कर्म किये और आप ही दुःखी हुआ । इसतरह अशुद्ध निश्चय नयमे आत्मा ही कर्ता, करण, कर्म तथा फलरूप हुआ । अज्ञान दगामें भी उपादान कर्ता, करण, कर्म और फल यह आत्मा ही है अन्य कोई नहीं है । आप ही अपने सराग भावसे रागी हो आकुलतारूप होता है । जैसे मिट्टी अपनी मिट्टीकी परिणतिसे घटरूप होकरके घटके कार्यमे आप ही परिणमन करती है तेसे यह आत्मा अपनी परिणतिमें आपको ही परिणमन करके अपनेको आकुलित