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१५२ ] श्रीप्रवचनसारटोका। . परिणमनस्वभाव है। जो परिणमन खभाव होता है उसीमें शुद्ध या अशुद्ध परिणमन होना संभव है । जब उस द्रव्यको पर द्रव्यका वैभाविक परिणमन करानेवाला निमित्त नहीं मिलता है तब वह द्रव्य अपने शुद्ध स्वभाव हीमें परिणमन करता है और जब उसको । परका निमित्त होता है तब वह अशुद्ध भावसे परिणमन करता है।
__ आत्मा उपयोगमई है-यह स्वभावसे अपने शुद्ध ज्ञान दर्शन, स्वभावरूपसे परिणमन करनेवाला है, परंतु इस संसारमें यह संसारी प्राणी अनादिकालसे पुद्गलमई आठ प्रकार द्रव्यकर्मोसे प्रवाहरूपसे बंधा चला आरहा है-उनही कर्मोमें एक मोहनीय कर्म है । जब इस कर्मका उदय होता है तब उस कर्मके अनुभागक्री शक्तिके अनुसार आत्माका उपयोग भी राग, द्वेष, मोह रूप परिणमन कर जाता है । जब निज आत्माके ज्ञानानंदमें उपयुक्त है तब ज्ञानचेतनारूप आ परिणमन करता है। तब किसी कामके करनेका भाव करता है तव अपने भावानुसार कर्मचेतनारूप आप ही परिणमता है और जब साता या असाताके उदयके साथ मोहके' उदयमें परिणमन करता है तब मैं सुखी हूं या दुःखी हू इस विकरूपसे परिणमन करके कर्मफलचेतना रूप परिणमता है। इस तरह आत्मा ही इन तीन रूप परिणामोको करनेवाला है। दूसरा कोई द्रव्य नही । इनमे ज्ञानचेतना खाभाविक परिणमन है, कर्मचेतना कर्मफलचेतना वैभाविक परिणमन है। इनमे वैभाविक परिणाम त्यागनेके योग्य है और स्वाभाविक परिणामरूप ज्ञानचेतना ग्रहण करने योग्य है।
जितना हमारेमें ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपश