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द्वितीय खंड।
[१५१ प्रयोजन यह है कि सम्यक्त विना सव असार है जब कि सम्यक्त सहित सब कुछ सार है ॥ ३३ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह आत्मा ही अभेद नयसे ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतनारूप होजाता है।
अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी । तम्हा णाणं कम्म, फलं च आदा मुणेदवो ॥३४॥ आत्मा परिणामा परिणामो ज्ञानकर्मफलभावी । तस्मात् शान कर्म फलं चात्मा मंतन्यः ॥ ३४ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(अप्पा परिणामप्पा) आत्मा परिणाम स्वभावी है। (परिणामो णाणकम्मफलभावी) परिणाम ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्मफल रूप होजाता है (तम्हा) इसलिये (आदा) आत्मा (णाण कम्म च फल ) ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्म फल रूप (मुणेदव्वो ) जानना चाहिये।
विशेपाथ-आमा परिणमनस्वभाव है यह बात पहले ही "परिणामो सयमादा" इस गाथामे कही जाचुकी है। उसी परिणमन स्वभावमे यह शक्ति है कि आत्माका भाव ज्ञानचेतना रूप, कर्म चेतनारूप व कर्मफलचेतनारूप होजावे । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफलचेतना इन तीन प्रकार चेतनारूप अभेद नयसे आत्माको ही जानना चाहिये । इस कथनसे यह अभिप्राय प्रगट किया गया कि यह आत्मा तीन प्रकार चेतनाके परिणामोसे परिणमन करता हुआ निश्चय रत्नत्रयमई शुद्ध परिणामसे मोक्षको साधन करता है । तथा शुभ तथा अशुभ परिणामोंसे वधको साधता है।
भावार्थ-इस गाथामे यह बताया गया है कि आत्मा स्वयं