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श्रीप्रवचनसारटीका ।
अशुद्ध आत्माकी अपेक्षा अशुद्ध चेतना या शुद्धोपयोग कर्मचेतना कह सक्ते हैं । तात्पर्य यह है कि हमको ज्ञानचेतनाको ही उपादेय मानके उसी रूप रहनेकी भावना करनी चाहिये - सदा ही अपने आत्माको कर्म और कर्मफलचेतनासे भिन्न भावना चाहिए ।
श्री अमृतचंद्र खामीने समयसार कलशमे कहा है. - अत्यन्तं भावयत्त्वा विरतमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च । प्रस्पष्ट नाटयित्वा प्रलयनमखिला ज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्त्वा स्वभावं स्वरसपरिगत ज्ञानसचेतना स्वा । सानन्द नाटयन्त प्रशमरसमितः सवकाल पिवन्तु ||४०||
भावाथ - कर्म से व कर्मफलसे अत्यन्त विरक्तभावकी निरंतर भावना करके और सर्व अज्ञान चेतना के नाशको प्रगटपने नचाकके तथा अपने आत्मीकरस से भरे हुए स्वभावको पूर्ण करके अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द सहित नचाते हुए अबसे अनन्त कालतक शांतरसका पान करो अर्थात् केवलज्ञानी होकर निरन्तर ज्ञानचे - नाम हो ।
यहां व्याख्या में मिथ्यादृप्टीके मात्र अशुभोपयोग कहा है शुभोपयोग नही कहा है उसका प्रयोजन यह है कि धर्मध्यान जहां है वहीं शुभोपयोग है । निश्रयसे मिथ्यादृष्टी द्रव्यलिगी साधुके भी धर्मध्यान नही है । इसलिये वास्तव में तो शुभोपयोग नहीं है, 'किन्तु यदि कषायकी मन्दताकी अपेक्षासे विचार करें तो शुभोपयोग है और इस कारण उसके अतिशय रहित पुण्य कर्मका भी बन्ध होता है । क्योकि यह शुभोपयोग सम्यक्त रहित है इसीसे मोक्षमार्ग में अशुभोपयोग नाम पाता है ।