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द्वितीय खंड।
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विश्च सर्वस्य सदृष्टेनित्य स्याज्ञानचेतना । अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डकधारया || ८५२ ।। हेतुस्तत्रान्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह । शानसचेतना लब्धनित्या स्वावर्णव्ययात् ॥८५३॥ कादाचित्काम्ति ज्ञानस्य चेतना स्वोपयोगिनी । नाल लब्धेविनाशाय समव्यातरसभवात् ॥ ८५४ ॥
अर्थ-सर्व सम्यग्दृष्टियोंके सदा ज्ञानचेतना रहती है वह निरन्तर प्रवाह रूपसे रहती है अथवा अखड एक धारारूपसे रहती है। निरंतर ज्ञानचेतनाके रहनेमें भी सहकारी कारण सम्यग्दर्शनके साथ अन्वय रूपसे रहनेवाली ज्ञानचेतना लब्धि है । वह अपने आवरणके दूर होनेसे सम्यग्दर्शनके साथ सदा रहती है। ज्ञानकी निन उपयोगात्मक चेतना कभी कभी होती है वह लब्धिका विनाश करनेमें समर्थ नहीं है। इसका कारण भी यही है कि उपयोगरूप ज्ञानचेतनाकी समव्याप्ति नहीं है। ____ इस कथनसे यह प्रगट होता है कि ज्ञानचेतनाका ज्ञानद्वान तथा उस रूप होनेकी शक्तिकी लब्धि तो सम्यग्दृष्टीको हो जाती है परन्तु चारित्रकी अपेक्षा जब वह शुद्धात्मानुभव करता है तब ज्ञानचेतना एकांशी रहती है। ज्यो ज्यो खरूप मग्नता बढ़ती जाती है ज्ञानचेतनाके अशोकी वृद्धि होती जाती है। केवलज्ञानीके सर्वाश ज्ञानचेतना हो जाती है। श्री जयसेनाचार्यने सम्यग्दृष्टीकी इस ज्ञानचेतनाको शुद्धोपयोग कर्मचेतना कही है सो मात्र अपेक्षाकृत भेद है, वास्तवमें कोई भेद नहीं है । शुद्ध आत्माकी प्रत्यक्ष चेतना वास्तवमें केवलज्ञानी हीके है जैसा पचाध्यायीकारने श्लोक १९४में कहा है। उसके नीचे खानुमत्रकी अपेक्षा ज्ञानचेतना तथा