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१४८] श्रीप्रवचनसारटीका। चेतनारूप होना है। फिर अनंतकाल तक ज्ञान चेतना रूप ही हुआ वह आत्मा परमानंदमें मग्न रहता है।" इस भावसे भी यही बात झलकती है कि ज्ञानचेतनाकी भावना तो केवलज्ञान पहले होती है परंतु ज्ञानचेतना केवलज्ञानीके ही होती है। श्री जयसेनाचार्यने इसीलिये शुद्धोपयोग कर्मचेतना केवलज्ञानके पहले वताई है। पंचाध्यायी ग्रंथमें इन चेतनाओके सम्बन्धमे श्लोक १९१ द्वि० खंडसे व्याख्यान प्रारंभ किया है वहां ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टीक लब्धिरूप सदा मानी है तथा साक्षात् तब मानी है जब वह स्वानुभव रूप होवे । जैसा कहा है
___ एकधा चेतना शुद्धा शुद्धस्यै कविधत्त्वतः ।
शुद्धाशुद्धोपल ,स्वाज्ञानत्वाज्ञानचेतना ॥१०॥ अर्थ-शुद्धचेतना एक प्रकार है क्योंकि शुद्ध एक प्रकार ही है। शुद्ध चेतनामें शुद्धताकी उपलब्धि होती है इसलिये वह शुद्ध है। और वह शुद्धोपलब्धि ज्ञानरूप है इसलिये उसे ज्ञानचेतना कहते हैं
अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना ।' चेतनत्वात्फलस्यास्य स्थात् कमफलचेतना ॥ १९५ ॥
अर्थ-अशुद्ध चेतना दो प्रकार है-एक कर्मचेतना दूसरी कर्मफलचेतना । कर्मफल चेतनामे फल भोगनेकी मुख्यता है। ___सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्हगात्मनः ।
न स्यान्मिथ्यादृशः क्वापि तदात्वे तदसभवात् ॥१९८॥
अर्थ-वह ज्ञानचेतना निश्चयसे सम्यग्दृष्टिको ही होती है। मिथ्याप्टिके कहीं भी नही होसक्ती क्योंकि वहां उसका होना असंभव है।।
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