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, द्वितीय खंड।
[१४७ श्री जयसेनाचार्यने इसी गाथाकी जो संस्कृत वृत्ति दी है उसका अनुवाद यह है कि वे सर्व प्रसिद्ध पांच प्रकारके स्थावर जीव अप्रगट रूप सुखदुःखका अनुभवरूप शुभ अशुभ कर्मोंके ‘फलको अनुभव करते हैं। हेंद्रियादि त्रस जीव उसी ही कर्मफलको निर्विकार परमानंदमई एक स्वभावरूप आत्मसुखको नहीं प्राप्त करते हुए विशेष रागद्वेषरूप जो कार्यचेतना है उस सहित अनुभव करते हैं। और जो विशेष शुद्धात्माके अनुभवकी भावनासे उत्पन्न परम आनंदमई एक सुखामृतरूप समरसी भावके बलसे दश तरहके प्राणोंसे रहित जो सिद्ध जीव है वे केवलज्ञानको अनुभव करते हैं । इसका भाव यही है कि स्थावर जीव कर्मफलचेतना तथा त्रस जीव कर्मफलचेतना सहित कर्म चेतना तथा केवलज्ञानी ज्ञान चेतनाको अनुभव करते हैं।
श्री समयसार आत्मख्यातिमे पं० जयचंदनीने प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान कल्पको वर्णन करके कर्म चेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावनाका वर्णन किया है वहां यह लिखा है कि “जब सम्यग्दृष्टि होता है तब ज्ञान श्रृद्धान तो हो ही जाता है कि मै शुद्ध नयकर समस्त कर्मोंसे और कर्मोके फलसे रहित हूं । अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत अवस्थामे तो ज्ञान श्रृद्धानमें निरन्तर भावना है ही, परन्तु जब अप्रमत्त दशा हो एकाग्र चित्तकर ध्यान करे तब केवल चैतन्य मात्र आत्मामें उपयोग लगावे
और शुद्धोपयोग रूप होय तब निश्चय चारित्ररूप शुद्धोपयोग भावसे श्रेणी चढ़ केवलज्ञान उपनाता है । उस समय इस भावनाका फल कर्मचेतना और कर्मफरचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञान