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१४६ ] श्रीप्रवचनसारटीका । -कर्मफलचेतना इसलिये नही है कि वहां शुद्धोपयोगरूप कर्मचेतना भी नही है।
इन तीन प्रकार चेतनाओं के स्वामी कौन कौन होते हैं इसका वर्णन महारान कुंद कुदाचार्यने श्री पंचास्तिकायमें इसतरह किया है:
सब्वे खलु कम्मफल थावरकाया तसा हि कजजुई । पाणित्तमदिक्कता णाग विंदति ते जीवा ॥ ३९ ॥ टीका अमृतचंद्र कृत इस भांति है
चेतयंतेऽनुभवन्ति उपलभते विदंतोत्येकाश्चितनानुभूत्युपलब्धिचेदनानामेकार्यत्वात् । तत्र स्थावराः कर्मफ चेतयंते, असाः कार्य चेतयते, केवलशानिनो जान चेतयंत इति ।
पं० हेमराजनीने इसकी भाषा इसतरह की है:
निश्चयसे एथिवी काय आदि जे समस्त ही पांच प्रकार , स्थावर जीव हैं ते काँका जो दुःख सुख फल तिसको प्रगटपने रागद्वेषकी विशेषता रहित अप्रगट रूप अपनी शक्तिके अनुसार वेदते हैं । क्योंकि न य जीवोके केवल मात्र कर्मफलचेतना रूप ही मुख्य है । निश्चयसे द्वेन्द्रियादिक जीव है ते कर्मका जो फल सुख दुख रूप है तिसको राग द्वेष मोहकी विशेषता लिये उद्यमी हुए इष्ट अनिष्ट पदार्थोमे कार्य करते सते भोगते हैं । इस कारण वे जीव कर्मफलचेतनाकी मुख्यता सहित जान लेना और जो जीव दश प्राणोंसे रहित हैं, अतीन्द्रिय ज्ञानी है वे शुद्ध प्रत्यक्ष ज्ञानी जीव केवलज्ञान चैतन्यभाव ही को साक्षात् परमानन्द सुखरूप अनुभवै हैं। ऐसे जीव ज्ञानचेतना संयुक्त कहाते है। ये तीन प्रकारके नीव तीन प्रकारकी चेतनाके धरनहारे जानने ।।