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द्वितीय खंड।
। १४५ 'अशुभ उपयोग होता है । जब पूजा, पाठ, जप, तप आदिमें प्रवतन करता है तब शुभोपयोग होता है और जब बुद्धिपूर्वक अपने उपयोगको रागद्वेपसे दूरकर आत्माके शुद्ध स्वभावके विचारमे लगाता है और इस शुभ क्रियाके कारण जव उपयोग आत्मस्थ होजाता है अर्थात् खानुभवमें एकता रूप होनाता है तब शुद्धोपयोग होता है। यद्यपि इस शुद्धोपयोगका प्रारम्म सम्यक्तकी अवस्थासे होनाता है तथापि इसकी मुख्यता मुनि महाराजोके होती है । सातवें अप्रमत्त गुणस्थानसे क्षीणकषाय पर्यंत शुद्धोपयोग कर्म है, ध्यानमय अवस्था है। यदि कोई लगातार सातवें गुणस्थानसे बारहवें तक चला जाय तो अंतर्महूर्त काल ही लगेगा। क्योंकि सातवेंमे ध्याताने अपने उपयोगको बुद्धिपूर्वक आत्मामे उपयुक्त किया है इस लिये इस शुद्धोपयोगको कर्मचेतना कहते है । वास्तवमे यह शुद्धोपयोगका कारण है । साक्षात् कार्यरूप शुद्धोपयोग अरहत सिद्ध परमात्माको है। वे अपने ज्ञानमें मग्न है और आत्म स्वभावसे निष्कर्म है-उनके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं पाई जाती है, इसलिये वहां ज्ञान चेतना ही है।
इस कथनसे यही झलकता है कि ज्ञानचेतना अरहंत अवस्थासे प्रारम्भ होती है उमके पहले कर्मचेतना और कर्मफल चेतना दो ही है, क्योकि अप्रमत्त सातवेंसे बारहवें तकमे मैं सुखी या दुःखी ऐसी चेतना नहीं है इससे इद्रियजनित सुख दुखकी चेतना नहीं है, परन्तु जब शुद्धोपयोग कर्म है तब उसके फलसे आत्मीक सुखका भोग है । इस हेतुसे कर्मफलचेतना कह सक्त हैं । यद्यपि केवलज्ञानी भी आत्मानंदका भोग कररहे है परन्तु उनके