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१४४ ] श्रीप्रवचनसारटोका। कर्मचेतना है जिससे वे पापकर्मको बांधते हैं तथापि इस कर्मचेतनाकी उनमें मुख्यता नहीं है क्योकि वे बुद्धिमें अतिशय करके हीन हैंउनके बुद्धि पूर्वक कार्य प्रगट देखनेमें नही आते हैं। परंतु कर्मफल चेतना तो प्रधानतासे उनमे है ही क्योंकि वे दुःखोंका अनुभव कररहे है। ___ जो त्रस जीव हैं उनमे कर्मफलचेतना भी है और कर्मचेतना भी है। मिथ्यादृष्टी द्वेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पयत जीवोमें शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग बुद्धिपूर्वक नहीं होता है किन्तु अशुभोपयोग होता है इससे इनके अशुभोपयोग कर्म चेतना है परन्तु पूर्वबद्ध पुण्य पापकर्मके फलसे सुख तथा दुःख दोनों भोगते हैं इससे संसारीक सुख तथा दुःख भोगने रूप कर्म- फलचेतना दो रूप है-इनको शुद्धोपयोगरूपसे पैदा होनेवाला आत्मिकसुखकी चेतना नहीं है । जो सम्यग्दृष्टी जीव है वे शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग तीनों रूप कार्योमें यथासम्भव बुद्धिपूर्वक वर्तन करते है इससे उनके तीनो प्रकारकी कर्मचेतना है तथा वे इंद्रियजनित सुख, दुख तथा आत्मानंद तीनोको ही यथासम्भव भोगते हैं । यहां इतना और समझना चाहिये कि मिथ्यादृष्टी पंचेन्द्रिय सैनीमे यद्यपि व्यवहारमें दान, पुजा, जप, तप आदि शुभ कार्य देखनेमे आते हैं परन्तु उसके भीतरसे इन्द्रियसुखकी वासना नही मिटी है इससे सिद्धांतमे उसको अशुभोपयोग कहते है । शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग सम्यग्दृष्टीके ही होता है। गृहस्थ सम्यक्तीके यद्यपि शृद्धानकी अपेक्षा उपयोग अशुभ नहीं है तथापि चारित्रकी अपेक्षा जब विषयकषायोमे प्रवर्तन करता है तब