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________________ द्वितीय खंड। [१३ या दुःखका अनुभव किया नावे सो कर्मफल चेतना है। यहा कर्मके तीन भेद किये गए हैं-एक अशुभोपयोगरूप कर्म जिसका फल नारक, पशु, मनुष्यादि गतियोंमें दुःखोका भोगना है, दूसरा शुभोपयोग रूप कर्म जिसका फल पशु, मनुष्य या देवगतिमे पंचेन्द्रियोंके भोगोंको यथासम्भव भोगकर इन्द्रियजनित सुखका भोगना है। तीसरा आत्माका अनुभव रूप शुद्धोपयोग कर्म है इसका फल परमानन्दमई आत्मीक अतींद्रिय सुखका भोगना है। इस तरह जैसे कर्मचेतना तीन प्रकार है वैसे कर्मफल चेतना भी तीन प्रकार है। इस तरह यह बात समझमें आती है कि ज्ञानं चेतना उन्हींको है जिनको शुद्धोपयोगका फलरूप परमात्मपद प्राप्त हो गया है । वहां मन, वचन, कायके व्यापार बुद्धिपूर्वक नहीं होते हैं। सिद्ध भगवानके तो मन वचन कायका सम्बन्ध ही नहीं है तथा अरहंत भगवानके यद्यपि मन वचन कायका सम्बन्ध है तथा सयोग अवस्थामे उनका परिणमन भी है तथापि वह बुद्धिपूर्वक नही है इसीसे अहंत और सिद्ध भगवानके कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना नहीं है किन्तु एक मात्र ज्ञान चेतना है। परमात्म प्रभु विना जाननेका विकल्प उठाए स्वभावसे ही स्वपरके ज्ञाता होकर परम वीतराग हैं। अपने शुद्ध ज्ञानमें ही मगन है । इस लिये वे ही ज्ञानचेतना खरूप हैं। शेष जो छद्मस्थ संसारी जीव हैं उनके दो चेतना पाई जाती हैं। ससारी जीव दो प्रकारके हैं एक स्थावर दूसरे त्रस । जो एकेन्द्रिय स्थावर जीव हैं उनके ज्ञान अति मद है यद्यपि अशुभ तीन लेश्याओंके कारण तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह चार सज्ञाओंके कारण उनके अशुभोपयोगरूप
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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