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१४२] श्रीप्रवचनसारटोका ।, अपनी बुद्धिपूर्वक मन वचन कायके व्यापार रूपसे जो कुछ करना प्रारम्भ किया हो उसको कर्म कहते हैं । यही कर्म चेतना है । सो कर्मचेतना शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोगके भेदसे तीन प्रकारकी कही गई है। सुख तथा दुःखको कर्मका फल कहते है उसको
अनुभव करना सो कर्मफल चेतना है। विषयानुराग रूप जो अशु• भोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल अति आकुलताको पैदा करनेवाला नारक आदिका दुःख है। धर्मानुराग रूप जो शुभोपयोग लक्षण कर्म है उसका फल चक्रवर्ती आदिके पंचेद्रियोके भोगोका भोगना है। यद्यपि इस सुखको अशुद्ध निश्चय नयसे सुख कहते हैं तथापि यह आकुलताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे शुद्ध निश्चय नयसे दुःख ही है । और जो रागादि रहित शुद्धोपयोगमें परिणमन रूप कर्म है उसका फल अनाकुलताको पैदा करनेवाला परमानदमई एक रूप सुखामृतका खाद है। इस तरह ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका स्वरूप जानना चाहिये।
भावार्थ यहां आचार्यने तीन प्रकार चेतनाका खरूप बताया है-जहा न सुख तथा दुःखके भोगनेमे विकल्प है, न किसी कार्यको मन वचन कायके द्वारा करनेमे विकल्प है किन्तु जहां मात्र अपने स्वरूपका-कि मै परमात्म स्वरूप हूं तथा परके स्वरूपका कि पर 'पदार्थ मुझसे भिन्न हैं-यथार्थ और पूर्ण ज्ञान है ऐसा जो ज्ञान उसे ही अर्थ विकल्प कहते हैं । इसी ज्ञानको चेतना-ज्ञान चेतना है। तथा जहां अपनी२ बुद्धिपूर्वक मन, वचन, कायके द्वारा जो कुछ काम किया जाय चाहे वह अशुभ कर्म हो या शुभ हो या शुद्ध हो उसको कर्म कहते हैं उस कर्मको चेतना कर्मचेतना है । नहां सुख