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________________ द्वितीय खंड। [१४१ नाकी परिणति किसी भी कार्यके करनेमें वर्तन कर रही है उसको कर्मचेतना और जो पूर्वकृत कोंके उदयसे प्रगट हुए सुख अथवा दुःखरूप फलोंके भोगनेमें वर्तन कर रही है उसको कर्मफलचेतना कहते हैं। इस तरह चेतनाके तीन भेद हैं-ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना ॥३२॥ उत्थानिका-आगे तीन प्रकार ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतनाके स्वरूपका विशेष विचार करते हैंणाणं अत्थवियप्पो फम्म जीवेण जं समारद्ध । तमणेगविधं भणिदं फलत्ति सोपखं व दुषख वा ॥३॥ शानमर्थविकल्प कर्म जीवेन यत्समारब्धम् ॥ तदनेकविध भणित फलमिति सौख्य वा दुःखं वा ॥३३॥ अन्वय सहित सामान्यार्थः-(अत्थवियप्पो) पदार्थोके जाननेमें समर्थ जो विकल्प है (णाणं) वह ज्ञान या ज्ञानचेतना है। (जीवेण ज समारद्ध कम्म) जीवके द्वारा जो प्रारम्भ किया हुआ कर्म है ( तमणेकविध भणिद ) वह अनेक प्रकारका कहा गया है-इस कर्मका चेतना सो कर्मचेतना है (वा सोक्ख व दुक्खं फलत्ति) तथा सुख या दुःखरूप फलमें चेतना सो कर्मफल चेतना है । विशेपार्थ-ज्ञानको अर्थका विकल्प कहते है जिसका प्रयोजन यह है कि ज्ञान अपने और परके आकारको झलकानेवाले दपर्णके समान स्वपर पदार्थोंको जाननेमें समर्थ है । वह ज्ञान इस तरह नानता है कि अनन्तज्ञान सुखादिरूप मैं परमात्मा पदार्थ हूं तथा रागादि आश्रवको आदि लेकर सर्व ही पुद्गलादि द्रव्य मुझसे भिन्न हैं । इसी अर्थ विकल्पको ज्ञान चेतना कहते हैं। इस जीवने
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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