________________
१४० ]
श्रीप्रवचनसारटोका ।
है । (पुण ) अर्थात् (सा) वह चेतना ( णाणे ) ज्ञानके सम्बन्धमें (कम्मे ) कर्म या कार्यके सम्बन्धमें ( वा कम्र्म्मणो फलम्मि ) तथा कर्मेकेि फलमें (भणिदा) कही गई है ।
विशेपार्थ- हरएक आत्मा चेतनापनेसे परिणमन करता रहता है अर्थात् जो कोई भी आत्माका शुद्ध या अशुद्ध परिणाम है वह सर्व ही परिणाम चेतनाको नहीं छोड़ता है । वह चेतना जब ज्ञानको विषय करती है अर्थात ज्ञानकी परिणतिमें वर्तन करती है तब उसको ज्ञानचेतना कहते है । जब वह चेतना किसी कर्म के करनेमें उपयुक्त है तब उसे कर्म चेतना और जब वह कर्मों के फल की तरफ परिणमन कर रही है तब उसको कर्मफलचेतना कहते हैं । इस तरह चेतना तीन प्रकारकी होती है ।
भावार्थ- आत्माका स्वभाव चेतना है । जो चेते वह चेतना । यहां चेतनासे मतलब तन्मय होकर जाननेका है । उपयोग आत्माकी चेतना गुणकी परिणतिको कहते हैं । आत्मा उपयोगवान है । इससे वह अपनी चेतनाकी परिणतिमें या उपयोगमे सदा वर्तन करता रहता है । उसी चेतनाके तीन भेद किये हैं । जब आत्मा ज्ञान मात्र भावमें परिणमन कर रहा है तब उसके ज्ञान चेतना है क्योंकि उसका उपयोग किसी भी पदार्थकी तरफ रागद्वेषके साथ में उपयुक्त नहीं है, वह उपयोग मात्र ज्ञान स्वभावमें वर्तन कररहा "है । वह उपयोग जानता मात्र है परन्तु रागद्वेष सहित नही जानता है । उस चेतनाकी परिणतिमें न किसी रागद्वेष पूर्वक कार्य करनेकी ओर ध्यान है न सुख दुःखकी तरफ ध्यान है जो कर्मोंके फल हैं इसलिये ज्ञान चेतनाको शुद्ध चेतना भी कह सके हैं। नो चेत