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द्वितीय खंड |
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इस लिये ध्यान करनेवालोको उचित है कि वे इन कामादि भाव कर्मों को दूरसे ही त्याग देवें । और भी कहा है
शूरोऽह शुभधीर पटुरह सर्वाधिक श्रीरह | मान्योऽहं गुणवानह विभुरहं पुंसामहमग्रणी ॥ इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी व सर्वथा कल्पना | शश्वद्धयान तदात्मतत्वममले नै श्रेयसो श्रीर्यंतः ॥ ६२ ॥
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भावार्थ- हे आत्मन् ! तू सर्वथा पापकर्मको लानेवाली इस कल्पनाको छोड कि मै शूर हूं, सुबुद्धि हूं, चतुर हूं, महान् लक्ष्मीवान हू, मान्य हू, गुणवान हूं, समर्थ हू, सव पुरुषोंने मुख्य हूं और निरन्तर उस निर्मल आत्म-तत्वका ध्यानकर जिसके प्रतापसे मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥ ३१ ॥
इस तरह रागादि भाव कर्मवधके कारण हैं उन्हींका कर्ता जीव है, इस कथनी मुख्यतासे दो गाथाओमे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
उत्थानिका- आगे कहते है कि जिस परिणामसे आत्मा परिणमन करता है वह परिणाम क्या है -
परिणमदि चेयणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा | सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥३२॥ परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता । सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फले वा कमणी भणिता ॥ ३२ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( आदा ) आत्मा ( चेयणाए ) चेतना के स्वभाव रूपसे ( परिणमदि ) परिणमन करता है (घुण ) तथा (चेदणा तिघा अभिमदा) वह चेतना तीन प्रकार मानी गई