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१३८] श्रीप्रवचनसारटीका । द्रव्य अपने नामसे ही द्रवणपने या परिणमनपनेको सिद्ध करता है । जैसे स्फटिक मणिको लाल पीले डांकका निमित्त मिलता है. तब वह रवयं लाल पीली वर्णरूप कांतिमे परिणमन कर जाती है और जब कोई पर निमित्त नही होता है तब अपनी निर्मल कांतिमें ही परिणमन करती है । इसी तरह आत्मा मोह आदि कर्मोके निमित्तसे भाव कर्म रूप परिणमता है । यदि निमित्त न हो तो अपने शुद्ध भावमें ही परिणमन करता है । आत्माके ही अशुद्ध रागादि भावोका निमित्त पाकर द्रव्य कर्मका बंध होता है जिससे यह जीव चारो गतियोमें जन्म लेकर कष्ट उठाता है । संसारके वीन रागादिभाव कर्म है। इन बीजोको दग्ध कर देनेसे ही जीव संसारके भ्रमणसे मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है । तात्पर्य यह है कि इस आत्माको अपने रागादि भावोके परिणमनको वीतराग परिणमनमे वदल देना चाहिये । यही साम्यभावकी प्राप्तिका या निज स्वरूपाचरण चारित्रकी प्राप्तिका उपाय है।
श्री अमितिगति महाराजने वड़े सामायिक पाठमे कहा है:कामक्रोधविषादमत्सरमदद्वेपप्रमादादिभिः शुद्धध्यानविवृद्धकारिमनसः स्थैर्य यतः क्षिप्यते ॥ काठिन्य परितापदानचतुरैमो हुताशैरिव । त्याच्या ध्यानविधायिभिस्तत इमे कामादयो दूरतः ॥५३॥ ,
भावाथ -जैसे आताप देनेमें प्रवीण अग्निके द्वारा सुवर्णकी कठिनता नहीं रहती है-वह मुलायम व चलायमान हो जाता है, ऐसे ही काम, क्रोध, विषाद, मत्सर, मद, द्वेष व प्रमादादि कार
थिरता नष्ट हो जाती है।