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द्वितीय खंड ।
[१३७ अपने परमाणोंका ही करनेवाला होसक्ता है-वह कभी भी ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मका कर्ता नहीं है क्योंकि आत्मा चतन्यमई है जव कि द्रव्य कर्म पुद्गलके रचे हुए है। हरएक द्रव्य अपने स्वभावमें ही क्रिया या परिणमन कर सक्ता है और जो परिणमन होता है उसीको उस परिणमन रूप क्रियाका कर्म कहते हैं । जैसे जीवके रागादि भावोका निमित्त पाकर पुद्गलमई कार्माण वर्गणा ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म रूप स्वयं अपनी परिणमन शक्तिसे परिणमन कर जाती हैं वैसे ही मोहनीय कर्मके उदयके असरके निमितसे जीवका उपयोग राग द्वेष मोह रूप परिणमन कर जाता है। इसलिये अशुद्ध उपादान या अशुद्ध निश्चय नयसे इन रागादि भावोंको जीवके परिणाम कहते है-ये ही भाव जीवकी अशुद्ध परिणमन क्रियासे उत्पन्न हुए भाव कर्म हैं । यदि शुद्ध उपादान या शुद्ध निश्चय नयसे विचार करें तो यह आत्मा कर्मके उदयके निमित्तकी अपेक्षा विना अपने शुद्ध उपयोगका ही करनेवाला है। वास्तवमें आत्मामें दो प्रकारके भावोके होनेकी शक्ति है-एक अपने स्वाभाविक भाव, दूसरे नैमित्तिक या वैभाविक भावकी । जब ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयका निमित्त होता है तब वैभाविक भाव रूप कर्म होता है और जब कर्मोका निमित्त नहीं होता तब स्वाभाविक ज्ञानानंद मई भावरूप कर्म होता है। यदि साख्यमतके अनुसार ऐसा माना जावे कि आत्मा सदा ही शुद्ध रहता है-उसमे नैमित्तिक भाव नहीं होता है तो आत्माके लिये संसारको दूरकर मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न निष्फल हो जायगा । कूटस्थ नित्य पदार्थमें किसी तरहका परिणमन नहीं होसक्ता है । सो यह बात द्रव्यके स्वभावके विरुद्ध है,