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________________ १३६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( परिणामो सयम् आदा ) जो परिणाम या भाव है सो स्वयं आत्मा है (पुण सा जीवमया किरियत्ति होइ) तथा वही परिणाम जीवसे की हुई एक क्रिया है ( किरिया कम्मत्ति मदा) तथा जो क्रिया है उसीको जीवका कर्म ऐसा माना है (तम्हा कम्मसण दुकत्ता ) इसलिये यह आत्मा द्रव्य कर्मका कर्ता नहीं है । विशेषाय - आत्माका जो परिणाम होता है वह आत्मा ही है क्योकि परिणाम और परिणाम करनेवाला दोनो तन्मयी होते हैं । इस परिणामको ही किया कहते हैं क्योकि यह परिणाम जीवसे उत्पन्न हुआ है । जो क्रिया जीवने स्वाधीनतासे शुद्ध या अशुद्ध उपादान कारण रूप से प्राप्त की है वह क्रिया जीवका कर्म है यह सम्मत है । यहां कर्म शब्दसे जीवसे अभिन्न चेतन्य कर्मको लेना चाहिये । इसीको भाव कर्म या निश्चय कर्म भी कहते हैं । इस कारण यह आत्मा द्रव्य कर्मोंका कर्ता नही है । यहां यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि जीव कथंचित् परिणामी है इससे जीवके कर्तापना है तथापि निश्चयसे यह जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, व्यहार मात्र से ही पुद्गल कर्मोंका कर्त्ता कहलाता है । इनमेंसे भी जब + यह जीव शुद्ध उपादान रूपसे शुद्धोपयोग रूपसे परिणमन करता है तब मोक्षको साधता है और जब अशुद्ध उपादान रूपसे परिणमता है तब बन्धको साधता है । इसी तरह पुद्गल भी जीवके समान निश्चयसे अपने परिणामोंका ही कर्ता है । व्यवहारसे जीवके परिणामोंका कर्त्ता है, ऐसा जानना । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बतलाया है कि - आत्मा.
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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