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________________ द्वितीय खंड। [१३५ श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमे कहते हैं रागद्वेषमयो जीवः कामक्रोधवशे यत । लोभमोहमदाविष्टः सारे ससरत्यसी ॥ २४ ॥ भावार्थः-क्योकि यह जीव रागद्वेष मई होरहा है, काम तथा क्रोधके आधीन है, लोभ, मोह व मदसे घिरा हुआ है इसीसे संसारमे भ्रमण करता है। अनादिकालजीवेन प्राप्त दु.ख पुन पुनः । मिथ्यामोहपरीतेन रूपाययशवर्तिना ॥ ४८ ॥. भावार्थ-इस मिथ्या मोह और कषायोके आधीन होकर इस जीवने अनादिकालसे बार वार दुख उठाये हैं। वास्तवमे भाव कर्म ही ससारके बीज हैं ॥३०॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि निश्चयसे यह आत्मा अपने ही परिणामका कर्ता है, द्रव्य कर्मोंका कर्ता नहीं है। अथवा दूसरी उत्थानिका यह है कि शुद्ध पारिणामिक परम भावको ग्रहण करनेवाली शुद्धनयसे जैसे यह जीव अकर्ता है वैसे ही अशुद्ध निश्चय नयसे भी सांख्य मतके कहे अनुसार जीव अकर्ता है। इस बातके निषेधके लिये तथा आत्माके वन्ध व मोक्ष सिद्ध करनेके लिये किसी अपेक्षा परिणामीपना है ऐसा स्थापित करते है। इस तरह दो उत्थानिका मनमें रखके आगेका सूत्र आचार्य कहते हैपरिणामो सयमादा सा पुण किरियत्ति होइ जीवमया । किरिया कम्मत्ति मदा तम्हा कम्मस्ल ण दु कत्ता ॥३१॥ परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी । क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो. न तु कर्ता ॥ ३१ ॥ ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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