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________________ १३४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । इस तरह पूर्ववद्ध कर्मके असरसे रागादि परिणाम होते हैं और रागादि भावसे नया कर्म बन्धता है। इस तरह रागी द्वेषी मोही जीवके सदा ही कर्म बंध हुआ करता है और उस बंधके कारण यह जीव चारों गतियो में सदा भ्रमण किया करता है। यदि यह सम्यग्दीनके प्रतापसे विबेक प्राप्त करे और अपने शुद्ध आत्मा के स्वभावका शृद्धान और ज्ञान करके उसीके अनुभवका प्रेमी होजावे तथा संसार शरीर भोगसे उदासीन रहे तो इसके पूर्ववद्ध कर्मोकी निर्जरा होने लगती है। ज्योज्यो शुद्ध भाव बढते है निर्जरा अधिक होती है, नया कर्मवध कम होता है। इसतरह बंध कम व निर्जरा अधिक होते होते यह आत्मा स्वय अरहंत और फिर सर्व कर्मरहित सिद्ध परमात्मा होजाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जब बीतरागभाव मुक्ति का बीज है तब सरागभाव ससारका बीज है। सरागभावको ही कर्मो के बंधका कारण होनेसे भावकर्म कहते हैं । श्री अमृतचंद्रस्वामीने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा है:परिणममाणो नित्य ज्ञानविवत्तैरनादिस्तत्या | परिणामाना वेण स भवति कर्त्ता च भोक्ता च ॥१०॥ जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ||१२|| भावार्थ - अनादि परिपाटीसे नित्य ज्ञानावरणादि कर्मोंसे परिगमता हुआ अर्थात उनके उदयको भोगता हुआ यह जीव अपने ही रागादि परिणामोका आप ही कर्ता और भोक्ता होता है तब ' इस जीवके किये हुए रागादि परिणामका निमित्त पाकर फिर दूसरे इस लोकमे भरे हुए कर्म पुद्गल आप ही कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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