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________________ A २५० ] श्रीप्रवचनसारटोका। शरीर व आत्माका एक भी परमाणु व भाव नहीं है। निमित्त मात्र होनेसे व्यवहारसे कुम्हार, जुलाहा व गनको कर्ता कहते हैं वैसे ही व्यवहारसे हम जीवको शरीरका की कह सक्ते हैं परंतु निश्चयसे नहीं। यहां पर शुद्ध निश्चय नयसे विचार करना है, जो नय जैसे कतकफल मले पानीमें पड़कर मैलसे पानीको अलग कर देता है वैसे अशुद्ध आत्माके विचारमें पड़कर आत्माको सर्व अशुद्धताओसे अलग कर देता है । इस शुद्ध निश्चय नयमें आत्मा न पुद्गल स्वरूप है और न पुद्गलका उपादान कर्ता है और न निणित्त कर्ता है । यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञानानंदका ही करनेवाला है और यही तत्त्वज्ञान शुद्धोपयोगपर पहुंचनेका कारण है। श्री अमृतचंद्रखामीने श्री समयसारनीमें कहा है:तत्त्वं न स्वभावोऽस्स चितो वेदयितृवत् । अज्ञानारच कर्ताऽयं तदभावादकारकः ॥ २ ॥ १० ॥ शानी करोति न न वेदयते च क्म, जानाति केवरमय हिल तर याव। जानन्परं करणवेदनययोरभावा-च्छुद्रस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥३॥१०॥ भावार्थ--शुद्ध निश्चय नयकी दृष्टिसे देखते हुए जैसे इस आत्माका स्वभाव भोगतापनेका नहीं है वैसे इसका स्वभाव कर्तापनेका नहीं है । अज्ञानसे ही यह कर्ता होता है, अज्ञानके चले जानेपर यह परमावोंका कर्ता नही होता है। निश्चयसे ज्ञानी आत्मा न तो कोको करता है न उनका फल भोगता है । वह मात्र उन कर्मोंके स्वभावको जानता है । इस तरह कर्ता भोक्तापनेसे रहित होकर निज परम खमावको जानता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें निश्चल रहता हुआ यह अत्मा साक्षात् मुक्तरूप ही झलकता है। .
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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