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द्वितीय खंड |
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ऐसा वस्तुका स्वरूप जानकर मैं न देहरूप हूं, न देहका कर्ता हू, ऐसा श्रद्धान दृढ़ जमाकर देहसे भिन्न निज आत्माको ही अनुभव करके शुद्धोपयोगमई साम्यभावमें कल्लोल करके सदा सुखी होना चाहिये ।
इस तरह मन वचन कायका शुद्धात्माके साथ भेद है ऐसा कथन करते हुए चौथे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह पूर्वमें कहे प्रमाण " अस्थित्तणिस्सदस्स हि " इत्यादि ग्यारह गाथाओंसे चौथेस्थलमें प्रथम विशेष अन्तर अधिकार पूर्ण हुआ ।
अब केवल पुद्गलकी मुख्यतासे नव (९) गाथा तक व्याख्यान करते हैं । इसमें दो स्थल हैं । परमाणुओं मे परस्पर बंध होता है इस बातके कहने के लिये “अपदेसो परमाणू ” इत्यादि पहले स्थलमें गाथाएं चार हैं । फिर स्कंधोंके वधकी मुख्यतासे "दुवसे दी खधा" इत्यादि दूसरे स्थलमें गाथा पांच है। इस तरह दूसरे विशेष अंतर अधिकारमें समुदायपातनिका है ।
उत्थानिका - यदि आत्मा पुद्गलोको पिंडरूप नहीं करता है तो किस तरह पिडकी पर्याय होती है इस प्रश्नका उत्तर देते हैंअपदेसो परमाणू पदेसमेतो य सयमसद्धो जो । णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुहवदि ॥ ७४ ॥ प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो वा ।
अप्रदेशः परमाणु. स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेश | दित्त्वमनुभवते ॥ ७४ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ - (परमाणु) पुगलका अविभागी
खड परमाणु (जो अपदेसो) जो बहुत प्रदेशोंसे रहित है (पदेसमतोय) एक प्रदेशमात्र है और ( सयमसद्दो) स्वयं व्यक्तरूपसे गन्द