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________________ द्वितीय खंड । [ २६९ इस जीवको अशुद्ध अवस्थामें व्यवहार नयसे कर्मोंका व शरीरका कर्ता कहते है क्योकि निन कर्मोके निमित्तसे शरीर बने है उन कर्मोंके संचय होने योग्य अशुद्ध भावोको इस जीवने किया था। जैसे किसी आदमीको शीतज्वर होजाय तो उसको शीतज्वरका कर्ता व्यवहारसे कहेंगे परंतु निश्चयसे उसने अपनेमें कभी भी शीतज्वरका होना नहीं चाहा है । वह ज्वर स्वयं शरीरके भीतर वायु आदि कारणोसे पैदा हुआ है क्योंकि उसने शरीरकी रक्षाका यत्न नहीं किया परन्तु वायुका प्रवेश होने दिया। इसलिये वह शीतज्वरका निमित्त हुआ। इस निमित्त नमित्तिक भावके कारण उसको गीत ज्वरका कर्ता कहसक्ते है वैसे ही आत्माने अशुद्ध रागादि भाव किये थे जिनके निमित्तसे शरीर प्राप्त हुए इसलिये व्यवहार नयसे आत्माको शरीरोंका निमित्त कर्ता कह सक्ते है परन्तु वास्तवमे इन शरीरोका उपादान कारण पुद्गल ही है आत्मा नही ।। व्यवहारमें कुम्हार घटको बनाता है, जुलाहा पटको बनाता है, राज मकानको बनाता है, ऐसा जो कहते है यह भी व्यवहार नयका वचन है । वास्तवमे कुम्हार, जुलाहा, व राजके अशुद्ध भाव व उसकी आत्माके प्रदेशोका हलनचलन निमित्त सहकारी कारण हैं उनके निमित्तको पाकर उनका पुद्गलमई शरीर भी निमित्त होजाता है परन्तु वे घट पट मकान अपने ही उपादान कारणसे स्वयं ही घट, पट, मकानरूप बन जाते है । मिट्टी आप ही घटकी सूरतमें बदलती है । रुई आप ही तागे बनकर कपडेकी सूरतमे बदलती है, ईंट पत्थर लकडी चूना गारा आप ही मकानकी सूरतमें पलटते हैं । इन घट पट मकानमे कुम्हार, जुलाहा, व रानके
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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