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२६८] श्रीप्रवचनसारटीका । आत्मा चैतन्यमई गुणोमें जैसे परिणमन करता है वसे पुद्गल जड़ अपने जड़पनेके गुणमें परिणमन करता है। शुद्ध अवस्थामे आत्मा शुद्ध भावोंका ही कर्ता है । अशुद्ध अवस्थामें आत्माके उपयोगरूप परिणमनमें जब साथ साथ रागादि भावकर्मकी भक्ति भी अपना फल झलकाती है तब शुद्ध उपयोगका परिणमन न प्रगट होकर उस उपयोगका औपाधिक परिणमन होता है अर्थात अशुद्ध भावोका झलकाव होता है तब इन भावोका भी करनेशला आत्माको अशुद्ध निश्चयनयसे कह सक्ते हैं, परन्तु कोई आत्मा पाप कर्मोका बन्ध नहीं चाहता है तो भी आत्माके रागद्वेषादि भावोंका निमित्त पाकर कार्माण वर्गणाएं आठ कर्मरूप होकर स्वय अपनी शक्तिसे कार्माण शरीर बना देती हैं । कर्मोके अदभुत बलके नयोगसे न चाहते हुए भी एक आत्मा किमी शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमे चला जाता है, वहां पहुंचते ही वांधे हुए कर्मोके उद्यकी असरसे आहार वर्गणाएं स्वयं खिचकर आती है जिनसे यह स्थूल शरीर बनता है। हमारे बिना किसी बुद्धिपूर्वक प्रयोगके कर्मोकी अपूर्व चमत्कारिक शक्तिसे ही शरीरके अंग उपांग छोटे बड़े सुन्दर असुन्दर बनते रहते हैं। इससे यह सिद्ध है कि जैसे आत्माके कार्माण शरीर स्वयं बन जाता है वसे यह स्थूल शरीर भी स्वयं वनता रहता है। आत्मा निश्चयसे जैसे कार्माण शरीरका कर्ता नहीं वैसे इस स्थूल औदारिक शरीरका भी कर्ता नहीं और न यह पुद्गल पिडको बनाता है । लोकमे अनेक परमाणु स्वयं मिलकर
अनेक पिंड बनाते रहते हैं । नदीमें पानीकी रगड़से बड़ेर सुन्दर . पत्थरके गोले बन जाते हैं-उनको कोई नीव नहीं बनाता है।