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________________ द्वितीय खंड । [ २६७ उत्थानिका- आगे फिर दिखाते है कि इस आत्माके जैसे शरीररूप पर द्रव्यका अभाव है वैसे उसके कर्तापनेका भी अभाव है।" णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ॥ ७३ ॥ नाह पुलमयो न ते मया पुहाः कृताः पिण्डम् | तस्माद्धि न देहोऽह कर्ता वा तस्य देहस्य || ७३ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - (नाहं पोग्गलमइयो ) में पुद्गल मई नही हू (ते पोग्गला पिड मया ण कया) तथा वे पुलके पिंड जिनसे मन वचन काय बनते है मेरेसे बनाए हुए नही हैं (तम्हा) इस लिये (हि) निश्चयसे ( अह देहो ण) मैं शरीररूप नहीं हूं (वा तस्स देहस्स कत्ता) और न उस देहका बनानेवाला हूं । विशेषार्थ में शरीर नहीं हूं क्योकि मै असलमे शरीर रहित सहज ही शुद्ध चैतन्यकी परिणतिको रखनेवाला हू इससे मेरा और शरीरका विरोध है । और न मै इस शरीर का कर्ता हूं क्योI कि मै क्रियारहित परम चैतन्य ज्योतिरूप परिणतिका ही कर्ता ह - मेरा कर्तापना देहके कर्तापनसे विरोधरूप है । भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने आत्मा और शरीरका भेदज्ञान और भी अच्छी तरह दिखा दिया है कि आत्माका स्वरूप स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित चैतन्यमई है। जब कि शरीर जिन पुद्गलोसे बना है उन पुलोका स्वरूप स्पर्श, रस, गंध, वर्णमई जड़ अचेतन है | तथा आत्मा अपनी चेतनामई परिणतिका करनेवाला हैवह जडकी परिणतिको करनेवाला नही है - हरएक द्रव्य अपनी उपादान शक्तिसे अपने ही अनत गुणो में परिणमन किया करता है | चेतन 1
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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