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२६६ ] श्रीप्रवचनसारटोका । वचन कायसे भिन्न शुद्ध चैतन्य धातुकी बनी हुई एक. अपूर्व अमूर्तीक वस्तु हूं। यही विश्वास शुद्धोपयोगकी प्राप्तिका बीज है। क्योकि जिसने मन वचन कायको अपने स्वरूपसे भिन्न जाना उसने काय सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब, वस्त्र, आभूषण, भूमि, मकान, देश, राज्य आदिको भी अपनेसे भिन्न जाना है। बस वहीं वैराग्यकी सीढ़ीपर चढ़कर शुद्धोपयोगकी भूमिकामें पहुंच सका है। ___ पुद्गल द्रव्य मूलमें परमाणुरूप है जिसका फिर दूसराविभाग नहीं होसक्ता है। पुद्गलमें बहु प्रदेशी रूप होकर परस्पर बन्धकर संघातरूप होनेकी शक्ति है जिससे अनेक परमाणु अनेक संख्या अनेक प्रकारसे परस्पर मिलकर अनेक प्रकारके स्कंधोंको बनाते रहते हैं जिनको वर्गणाएं कहते हैं। इन्हीं वर्गणाओंसे मान । वचन, काय बनते हैं, ऐसा ही हमें निश्चय करना चाहिये । निसने इनको भिन्न नाना उसीका सबसे राग छूटेगा जैसा कि, श्री अमितिगति महाराजने छोटे सामायिकपाठमें कहा है
यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्दै तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः ।। पृथक्कृते चमणि रेमकूपाः कुतो हि तिष्ठति शरं रमध्ये ॥२७॥
भावार्थ-जिसकी एकता शरीरसे नहीं है उसकी एकता, पुत्र, स्त्री, मित्र आदिसे कैसे होसक्ती है जैसे यदि चमड़ेको शरीरसे अलग किया जाय तो उसीके साथ रोम छिद्र भी अलग हो जायगे क्योकि वे चमड़ेके ही सम्बन्धसे रहते हैं। इस तरह मन, वचन कार्यको व उनकी क्रियाओंको भिन्न माननेसे ही. अपना भिन्न स्वरूप हमको भिन्न झलकने लगता है. यही मनन परम हितकारी है ।। ७२ ॥