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द्वितीय खंड |
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वास्तवमें चित्तको रोकनेरूप ध्यान नहीं हैं । वे सदा ही आत्मध्यानी व आत्मानन्दी हैं - उनकी महिमा बचन अगोचर है। यहां यह तात्पर्य है कि जिस आत्मध्यानसे ऐसा अपूर्व अरहंतपद प्राप्त होता है उस ध्यानका पुरुषार्थ कर्तव्य है । आप्तखरूप नाम में अरहंत भगवानका स्वरूप कहते हैं-
नष्ट छद्मस्थविज्ञान नष्ट केशादिवर्धनम् ।
नष्ट देहमले कृत्स्न नष्टे घातिचतुष्टये ॥ ८ ॥
नष्ट मर्यादविज्ञान नष्ट मानसगोचरम् ।
नष्ट कर्ममल दुष्ट नष्टो वर्णात्मको ध्वनिः ॥ ९ ॥ नष्टाः क्षुत्तमयस्वेदा नष्टं प्रत्येकयोधनम् । नष्टं भूमिगत नष्ट द्रयसुखं ॥ १०
येनास परमैश्वर्यं परानन्दसुखास्पदम् ।
बोधः कृतार्थोऽसावीवरः पटुभिः स्मृतः ॥ २३ ॥
भावार्थ - जिसने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये, छद्मस्थ ज्ञान दूर कर दिया, केश नखकी वृद्धि बन्द की व सर्व शरीरका मल भी हटा दिया। जिसमें मन सम्बन्धी व इंद्रिय सम्बन्धी व क्षयोपशम रूप मर्यादित ज्ञान भी नहीं रहा जिसके दुष्ट कर्ममल नष्ट हुआ व अक्षररूप ध्वनि भी नहीं रही। जिसके क्षुधा, तृषा, भय, स्वेद आदि अठारह दोष नष्ट होगए, प्रत्येक प्राणीको समझानेकी क्रिया भी बढ हुई, भूमिमे स्पर्श भी न रहा व इंद्रियोंके द्वारा सुख भोग भी न रहा- जिन्होंने अनन्त ज्ञानरूप परमानद सुखके स्थान परमईश्वरपनेको प्राप्त कर लिया व जो परमकृतकृत्य है उसहीको बुद्धिमानोने ईश्वर कहा है ।