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श्रीप्रवचनसारटीका ।
सुख- स्वाभाविक शुद्ध प्रगट होजाते हैं । वे इंद्रियोंके द्वारा न तो जानते हैं न उनके द्वारा विषयसुखका भोग करते हैं- उनकी प्रवृत्ति इंद्रियों की प्रवृत्तिसे रहित होजाती है । उनको कोई प्रकारकी क्षुधा, तृषा, रोग, शोक, शीत, उष्ण आदि परीसहोंकी व किसी चेतन व अचेतनकृत उपसर्गकी कोई शारीरिक व मानसिक बाधा नहीं होती है। उनका शुद्ध आत्मा अन्य अल्पज्ञानियोंके इंद्रियज्ञानका भी विषय नहीं है । ऐसे भगवान निरन्तर निजानन्दका स्वाद लिया करते हैं अर्थात् समय २ अपूर्व आत्मीक सुखका अनुभव करते हैं। या यों कह दीजिये कि वे भगवान अपने ही स्वाभाविक आनन्दको ध्याते हैं । उनके ऐसा ध्यान नहीं है जैसा कि छद्मस्थोके होता है कि चित्तको अन्य पदार्थोंसे रोककर आत्मामें लगाना पड़े । वे सदा आत्मस्थ ही हैं - आठ वर्ष कुछ अधिक कम एक करोड़ पुत्र वर्ष तक भी वे एकाकार आत्मामई बने रहते हैं - उनमे कोई रागादि विकार नहीं होते हैं, उनके उपयोकी चंचलता अल्पज्ञकी तरह नही होती है । उनका उपयोग आत्मामें ही मग्न रहता हुआ आत्मीक आनन्दका भोग किया करता है। सिद्धात मे जो केवली भगवानके ध्यान कहा है वह इसी अपेक्षासे व्यवहारसे कहा है कि वहां ध्यानका फल मौजूद है अर्थात् उनके पूर्ववद्ध कर्मोंकी निर्जरा होती रहती है । तथा तीसरा व चौथा शुक्लध्यान भी उनकी आत्माकी अवस्थाकी अपेक्षा उपचारसे कहा है । जब कायद्वारा सूक्ष्म आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है तब तीसरा शुक्लध्यान व जब योगरहित होते हैं तब सर्व क्रियासे निर्वृत्त होनेके कारण चौथा शुक्लध्यान कहा है । केवली भगवानके
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