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________________ द्वितीय खंड | [ ३६९ हुए उसी समयसे वे भगवान जिनकी आत्मा दूसरोके इद्रियोंका विषय नहीं है किसी परम उत्कृष्ट सर्व आत्माके प्रदेशो में आहांद देनेवाले अनन्त सुखरूप एकाकार समता रसके भावसे परिणमन करते रहते हैं अर्थात् निरन्तर अनन्त सुखका स्वाद लेते रहते हैं । - जिस समय यह भगवान एक देश होनेवाले सामारिक ज्ञान और सुखकी कारण तथा सर्व आत्माके प्रदेशोंमे पैदा होनेवाले स्वाभाविक अतींद्रिय ज्ञान और सुखको नाश करनेवाली इन इद्रियोको निश्रय रत्नत्रयमई कारण समयसारके वलसे उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् उन इद्रियोंके द्वारा प्रवृत्तिको नाश करदेते हैं उसी ही क्षणसे वे सर्व वाधासे रहित होजाते हैं, तथा अतींद्रिय और अन आत्मासे उत्पन्न आनन्दका अनुभव करते रहते हैं अर्थात् आत्म सुखको ध्याते है व आत्मसुखमें परिणमन करते है । इससे जाना जाता है कि केवलियोको दूसरा कोई चिन्तानिरोध लक्षण ध्यान नही है, किन्तु इसी परम सुखका अनुभव है अथवा उनके घ्यानका फलरूप कर्मकी निर्जराको देखकर ध्यान है ऐसा उपचार किया जाता है। तथा जो आगममे कहा है कि सयोग केवलीके तीसरा शुक्लव्यान व अयोग केवलीके चौथा शुलध्यान होता है वह उपचारसे जानना चाहिये ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथामे वास्तवमें केवली भगवानका स्वभाव बताया है । आचार्य कहते है कि केवली भगवानका आत्मा ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंसे रहित होकर अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त व क्षायिक सम्यक्त व क्षायिक यथाख्यात चारित्र तथा अनन्त सुख से परिपूर्ण होजाता है । उनके आत्मामें ज्ञान व २४
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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