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१७०] श्रीप्रवचनसारंटीकी । लिंगेहि जेहिं दव्वं जीवमजीवे च हवदि विष्णाद । ते तव्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेयां ॥ ३ ॥ लिङ्गैयद्रव्य जीवोऽनीवश्च भवति विज्ञानम् । ते तद्भावविशिष्टा मूर्तामृर्ता गुणा शेयाः ॥ ३९ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( जेहि लिगेहिं ) जिन लक्ष'णोसे ( जीवमजीवं दव्वं ) जीव और अजीव द्रव्य (विण्णादं हवदि) जाने जाते हैं (ते) वे लक्षण या चिन्ह (तभावविसिट्ठा) उनके साथ तन्मयताको रखनेवाले (मुत्तामुत्ता गुणा) मूर्तीक और अमूर्तीक गुण (णेया) जानने चाहिये।
विशेषार्थ-खाभाविक शुद्ध परम चैतन्यके विलास रूप विशेष गुणोसे जीव द्रव्य तथा अचेतन या जरूप विशेष गुणोंसे अनीव द्रव्य पहचाने जाते हैं। ये चेतन तथा अचेतन गुण अपनेर द्रव्यसे तन्मय हैं । जैसे शुद्ध जीव द्रव्यमें जो केवल ज्ञान आदि गुण हैं उनकी शुद्ध जीवके प्रदेशोके साथ जो एकता, अभिन्नता तथा तन्मयता है उसको तदभाव कहते हैं । इस तरह शुद्ध जीव द्रव्य अपने प्रदेशोकी अपेक्षा अपने शुद्ध गुणोसे तन्मय है परन्तु जब गुणोंका
और उन प्रदेशोका जहा वे गुण पाए जाते हैं संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भेद किया जाता है तब गुण और द्रव्यमें अतद्भावपना या भेदपना भी सिद्ध होता है। द्रव्य और गुण किसी अपेक्षा अभेदरूप व किसी अपेक्षा भेदरूप हैं । अथवा दूसरा व्याख्यान यह है कि जिस द्रव्यके जो विशेष गुण है वे अपने द्रव्यसे तो तद्भावरूप या तन्मय हैं परन्तु अन्य द्रव्योसे वे अतद्भावरूप या भिन्न हैं । ये चेतन अचेतन गुण दो प्रकारके जानने चाहिये--मूर्तीक और अमू