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द्वितीय खंड। [१६९ स्कंधके साथ संघात या मेल होनेपर जो विशेष स्कंध होता है वह विभावव्यंजनपर्याय है। अविभागी परमाणु विना किसीके मिलापके जबतक है तबतक खभाव व्यंजन पर्यायरूप है । इस तरह व्यजन पर्यायें जीव और पुद्गलोंमें होती है । ऐसा ही आलापपद्धतिमें कहा है:
धर्माधर्मनभः काला अर्थपर्यायगाचराः ।
व्यञ्जनेन तु सबद्धौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ ॥ भावार्थ-धर्म, अधर्म, आकाश और कालमे अर्थ पर्यायें ही होती है किन्तु जीव पुद्गलोंमें अर्थ पर्याय भी होती है व व्यंजन पर्यायें भी होती हैं । इसी कारणसे चार द्रव्य किया रहित अर्थात् हलनचलन रहित निःक्रिय हैं और जीव पुद्गल क्रियावान अर्थात् हलनचलन सहित हैं।
-प्रयोजन यह है कि अपने आत्माको संसार अवस्थामें आवागमनरूप क्रियाके भीतर चौरासी लाख योनियोंके हारा क्लेश उठाते नानकर उसको सिद्ध अवस्थामें पहुंचानेका यत्न करना चाहिये जिससे यह जीव भी निःक्रिय होनावे क्योकि सिद्धात्मा हलनचलन क्रिया रहित है। स्वभावमे लोकाग्र एक आकारसे विना सकम्प हुए विराजमान हैं। इसीलिये अभेद रत्नत्रय स्वरूप साम्यभावका आश्रयकर स्वानुभवका अभ्यास करना चाहिये ऐसा तात्पर्य है। इस तरह जीव और अजीवपना, लोक और अलोकपना, सक्रिय निष्क्रियपनाको क्रमसे कहते हुए प्रथम स्थलमे तीन गाथाएं समाप्त हुई ॥ ३८ ॥
__ उत्थानिका-आगे ज्ञानादि विशेष गुणोके भेदसे द्रव्योंके भेदोंको बताते हैं: