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________________ द्वितीय खंड । ' 1 [ १७१ तक अर्थात् मूर्तीक द्रव्योके मूर्तीक गुण और अमूर्तीक द्रव्योंके अंमूर्तीक गुण समझने चाहिये । भावार्थ - इस गाथामे आचार्य यह बताते है कि जीव और अजीव द्रव्योंको किस तरह पहचाना जाता है । जो अस्तित्त्व, ! वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्त्व तथा प्रमेयत्त्व सामान्यगुण हैं वे तो सर्व छहो द्रव्योमें व्यापक है उनसे जीव और अजीव ' द्रव्योकी भिन्नता नहीं जानी जा सकती है । इसलिये भिन्न २ Į द्रव्योंमें भिन्न विशेष गुण है जिनसे वह विशेष द्रव्य जाना जा सक्ता है । वे विशेष गुण अपने २ द्रव्यसे तो तन्मयपना रखते हैं परन्तु अन्य द्रव्यसे बिलकुल भिन्न है । तथा अपने २ द्रव्यके साथ भी वे गुण प्रदेशोकी अपेक्षा अभेदरूप है परन्तु सज्ञा ढिकी. अपेक्षा भेदरूप या भिन्न है । जिन लक्षणोंसे द्रव्योको भिन्न २ जाने उन लक्षणोको किसी अपेक्षा मूर्तीक और अमूर्तीक गुण कह सक्ते हैं । अर्थात् जो मूर्तीक द्रव्य है उनके विशेष गुण मूर्तीक हैं तथा जो अमूर्तीक द्रव्य हैं उनके विशेष गुण अमूर्तक हैं । छः द्रव्योमे पुंगल द्रव्य मूर्तीक है इसलिये उसके विशेष गुण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण भी मूर्तीक है। जीव. धर्म, अधर्म, आकाश, काल अमूर्तीक है इसलिये उनके विशेष गुण चैतन्यादि भी अमूर्तीक है। ये छहों द्रव्य अपने अपने विशेष गुणोसे ही भिन्न २ जाने जाते हैं। तात्पर्य यह है कि इनमे निज आत्मा ही उपादेय है । श्री योगेन्द्राचार्यने योगसारमे कहा है:-- Ju पुग्गल अष्णु जि अष्णु जिउ अण्ण वि सहु विवहारु । वय व पुंग्गल गहहि जिउ लहु पाहु भवपाई ॥ ५४ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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