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श्रीप्रवचनसारटीका।
भावार्थ-वस्तु सामान्यपने न उपजती है, न नष्ट होती है क्योकि प्रगटपने अन्वय स्वरूप है, बरावर बनी रहती है किन्तु विशेषपने अर्थात् पर्यायकी अपेक्षा उत्पन्न भी होती है व्यय भी होती है। भेदरूप एक समयमें देखा जावे तो एक साथ सतरूप द्रव्यमे उत्पाद व्यय ध्रौव्य दीखेंगे । सत्ता मात्र द्रव्यकी दृष्टिमें मात्र अभेदरूप एक द्रव्य ही दीखेगा । यदि द्रव्यका उत्पाद माना जाय तो असत्का उत्पाद हो जायगा सो असंभव है। यदि द्रव्यका नाश माना जाय तो सत्का नाश होजायगा सो भी नहीं होसक्का इसलिये पर्यायोमे ही उत्पाद व्यय होता है द्रव्यमें नही। द्रव्य सदा बना रहता है। द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप है। ये तीनो प्रत्येक विशेषण है द्रव्य विशेष्य है। ऐसी वस्तुका स्वरूप जानकर हमारा कर्तव्य है कि पर्यायोके उत्पाद विनाशमें हर्ष शोक न करके संसारकी अवस्थाओंमे साम्यभाव रक्खें और द्रव्य दृष्टिसे देखते हुए छः द्रव्योको पृथक् देखकर उनमेसे निज आत्म द्रव्यको खाभाविक शुद्ध स्वरूपमें तन्मय देखकर उसीके मननसे व अनुभवसे अपना हित करें। यह तात्पर्य है ॥ १० ॥
उत्थानिका-आगे फिर भी उत्पाद व्यय ध्रौव्यका अन्य प्रकारसे द्रव्यके साथ अभेद दिखाते हैं अर्थात् उत्पाद व्यय ध्रौव्यका समयभेद नहीं है ऐसा बताते हैं च जो समयभेद माने उसे निराकरण करते हैं या खण्डन करते है
समवेद खलु दव संभवठिदिणाससपिणदट्टेहि । एकम्मि चेव समये तम्हा व्वं खु तत्तिदयं ॥ ११।।