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द्वितीय खंड |
समवेत खलु द्रव्य संभवस्थितिनाशस जितार्थैः । एकस्मिन् चैव समये तस्माद्द्रव्य खलु तत्रितयम् ॥ ११॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( दव्वं) द्रव्य (खल) निश्चयसे ( एकम्मि चेव समये) एक ही समयमे परिणमन करनेवाले (संभव - ठिदिणाससण्णिदद्वेहि) उत्पाद स्थिति व नाश नामके भावोसे (समवेद) एक रूप है अर्थात् अभिन्न है ( तम्हा) इसलिये (दव्व) द्रव्य (खु) प्रगट रूपसे (तत्तिदयं ) उन तीन रूप है ।
विशेषार्थ - यहा वृत्तिकार उत्पाद व्यय धौव्यको आत्मा द्रव्यके साथ लगाकर स्थापित करते है । आत्मा नामा द्रव्य जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक निश्चल और विकार रहित अपने आत्माके अनुभवमई लक्षणवाले वीतराग चारित्रकी अवस्थासे उत्पन्न होता है अर्थात् जब सम्यग्दृष्टी और ज्ञानी आत्मामे वीतराग चारित्र की पर्यायका उत्पाद होता है तब ही रागादिरूप पर्यायका जो परद्रव्योके साथ एकता करके परिणमन कररहा था - नाश होता है और उसी वक्त इन दोनों उत्पाद और व्ययका आधाररूप आत्म द्रव्यकी अवस्थारूप पर्यायसे ध्रौव्यपना है । इस तरह वह आत्मद्रव्य अपने ही उत्पाद व्यय धौव्यकी पर्यायोसे एक रूप है या अभिन्न है । यही बात निश्चयसे है । ये तीनो पर्यायें बौद्धमत की तरह भिन्न २ समय में नही होती हैं किन्तु एक ही समय में होती है । जैसे जब अंगुलीको टेढ़ा किया जावे तब एक ही समयमे टेढ़ेपनेकी उत्पत्ति और सीधेपनका नाश तथा अगुलीपनेका धौव्य है । इसी तरह जब कोई ससारी जीव मरण करके ऋजुगति से एक ही समय में जाता है तब जो समय मरणका है वही
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