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श्रीप्रवचनसारटोका। समय ऋजुगति प्राप्तिका है तथा वह जीव अपने जीवपनेसे विद्यमान है ही । तैसे ही जब क्षीणकपाय नामके वारहवें गुणस्थानके अंतिम समयमे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है तव ही अज्ञान पर्यायका नाश होता है तथा वीतरागी आत्माकी स्थिति है ही। इसी तरह जब अयोगी केवलीके अन्त समयमे मोक्ष होती है तब निस समय मोक्ष पर्यायका उत्पाद है तब ही चौदहवें गुणस्थानकी पर्यायका नाश है तथा दोनो ही अवस्थाओमे आत्मा ध्रुवरूप है ही। इस तरह एक ही समयमें उत्पाद व्यय प्रौव्य सिद्ध होते हैं । इस लिये जब पूर्वमे कहे प्रमाण एक ही समयमें तीन प्रकारसे द्रव्य परिणमन करता है तब संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिसे इन तीन पर्यायोमें भेद होते हुए भी प्रदेशोंकी अपेक्षा अभेद है इसलिये द्रव्य प्रगट रूपसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य खरूप हैं। जैसे यहां आत्मामें चारित्रपर्यायकी उत्पत्ति और अचारित्रपर्यायका नाश समझाते हुए तीनो ही भंग अभेदपने दिखाए गए हैं ऐसे ही सर्व द्रव्योंकी पर्यायोमे भी जानना चाहिये । ऐसा अर्थ है।
भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने द्रव्यका लक्षण और भी अच्छी तरह स्पष्ट किया है । सत्ता रूप द्रव्य एक ही समयमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । ये तीनो भग द्रव्यमे ही होते हैं इनकी सज्ञा व द्रव्यकी सज्ञा जुदी है, इनका अभिप्राय व द्रव्यका अभिप्राय जुदा है तथापि जो द्रव्यके प्रदेश में वे ही इन उत्पाद व्यय प्रौव्यके प्रदेश है इस कारण द्रव्यके साथ इनकी
अभिन्नता या एकता है। एकता होनेपर भी ऐसा नहीं है कि निस समय उत्पाद होता है उस समय व्यय तथा ध्रौव्य नही होते